• गुहिलवंश की प्राचीनता •
हूण राजा मिहिरकुल के पीछे जिन राजपूत वंशों ने राजस्थान में अपने राज्य स्थापित किये उनमें गहिलवंशीय राजपूत मुख्य है । इस वंश में सर्वप्रथम गुहिल के प्रतापी होने के कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ आकर बसे उन्होंने अपने को गहिलवंशीय कहा ।
संस्कृत लेखों में इस वंश के लिए 'गुहिल', 'गुहिलपुत्र', 'गोभिलपत्र', 'गुहिलोत' और 'गौहिल्य' शब्दों का प्रयोग किया गया है । भाषा में इन्हें 'गहिल', 'गोहिल', 'गहलोत' और 'गेहलोत' कहते हैं । भाषा का 'गोहिल' रूप संस्कृत के 'गोभिल' और 'गौहिल्य' से बना है ।
• गुहिलों की उत्पत्ति •
गुहिलों के आदि निवास-स्थान तथा उत्पत्ति के विषय में कई भान्तियाँ प्रचलित हैं । अबुल फजल ने सरकार अजमेर के प्रसंग में मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल की सन्तान होना लिखा है । इसी आधार पर 'मासिरुलउमरा' तथा 'बिसातुल गनाइम' के कर्ताओं ने मेवाड़ के गुहिलों को नौशेरवां के वंशज मानकर यह लिखा है कि जब नौशेरवां जीवित था तो उसके पुत्र नौशेजाद ने, जिसकी माता रूम के कैसर की पुत्री थी, अपना प्राचीन धर्म छोड़कर ईसाई धर्म स्वीकार किया और वह बड़ी सेना के साथ हिन्दुस्तान में आया । यहाँ वह फिर अपने पिता के साथ लड़ने को ईरान पर चढ़ा और वहाँ मारा गया । उसकी सन्तान हिन्दुस्तान में ही रही । उसी के वंश में गुहिल हैं ।
कर्नल टॉड ने राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मानने के पक्ष की पुष्टि में फारसी तवारीखों के वर्णन को ठीक माना और जैन ग्रन्थों के आधार पर यह धारणा बनायी कि वल्लभी के शासक शिलादित्य के समय जो कनकसेन (144 ई.) के पीछे हुआ था, विदेशियों ने वल्लभी पर 524 ई. के आक्रमण पर उसे नष्ट कर दिया । उस समय शिलादित्य की राणी पुष्पावती ही, जो अम्बा भवानी की यात्रा के लिए गयी हुई थी, बच पायी । उसी ने गोह (गुहदत्त) को जन्म दिया जो आगे चलकर मेवाड़ का स्वामी बना । स्मिथ ने भी गुहिलों को विदेशी होना बताया है । वीर विनोद के लेखक कविराज श्यामलदास ने यह तो स्वीकार कर लिया कि गुहिलवंश वल्लभी से मेवाड में आया, परन्तु उन्होंने शिलादित्य के समय में वल्लभी पतन की टॉड की दलील से मतभेद प्रकट करते हुए यह लिखा है कि उस समय वल्लभी में कोई दूसरा राजा होगा जिसके मारे जाने के बाद उक्त खानदान की बड़ी शाखा (जिसमें गुहिलों और बापा हुए) मेवाड़ के अर्वली पहाड़ में आकर छपी । वल्लभी की गुहिल शाखा को मान्यता देने के साथ कविराज ने इसको क्षत्रियों की 36 शाखा के अन्तर्गत बताया है ।
डाॅ. ओझा ने कर्नल टॉड की इन सभी धारणाओं को कपोल-कल्पित बताया है, क्योंकि ई. सं. 144 में सौराष्ट्र का स्वामी कनकसेन नहीं, किन्तु क्षत्रप वंशीय राजा रुद्रदामा था । इसी तरह उनका कहना है कि कनकसेन के पाँचवीं पीढ़ी में विजयसेन का होना तथा नौशेजाद के हिन्दुस्तान में आने की मान्यता प्रमाणशून्य हैं । वह तो बगावत करने पर ईरान में ही मारा गया था, ऐसी स्थिति में भारतवर्ष में उसका आना निराधार है । इन आधारों से डाॅ. ओझा टॉड का मत अस्वीकार करते हुए यह लिखते हैं कि यदि वल्लभी का पतन टॉड के अनुसार 524 ई. में माना जाय तो शिलादित्य का यवनों के विरुद्ध युद्ध में मारा जाना, राणी पुष्पावती का मेवाड में आना और गुहा का वहाँ जन्म होना तिथिक्रम से असंगत है । यह तो प्रमाणित है कि नौशेरवां ईरान के तख्त पर 531 ई. में बैठा था तो फिर टॉड द्वारा दी गयी उपर्युक्त घटनाएँ 524 ई. में कैसे हो सकती हैं । ऐसी स्थिति में नौशेजाद या माहवान् के वंश में न तो वल्लभी के राजा ही हो सकते हैं और न गुहिल का इस वंश का होना ही सिद्ध होता है । इन दलीलों से डाॅ. ओझा गहिलों को विदेशियों से उत्पन्न नहीं मानते । वे तो यह विश्वास करते हैं कि गुहिलवंशीय राजपूत विशुद्ध सूर्यवंशीय है। अपने मत की पुष्टि में वे लिखते हैं कि बापा के सिक्के पर सूर्य का चिह इस मत का बहुत बड़ा प्रमाण है । वे यह भी लिखते हैं वि. सं. 1028 के शिलालख में गुहिलवंशीय राजाओं को रघुवंश की कीर्ति फैलाने वाले इसीलिए लिखा है कि वे सूर्यवंशीय क्षत्रिय हैं । इसी तरह वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के शिलालेख में उनको 'क्षत्रियों का उत्पत्ति-स्थान' बताना, वि. सं. 1342 के समरसिंह के लेख में उनको 'मूर्तिमान क्षात्रधर्म' कहना , वि . सं . 1485 के लेख में उनके लिए 'क्षत्रियवंश मण्डनमणि' शब्द का प्रयोग करना, वि. सं. 1557 के रायमल के लेख में उनको 'सूर्यवंशीय क्षत्रीय' लिखना आदि प्रमाण उदयपुर के राजवंश का सूर्यवंश होना सूचित करते हैं ।
श्रीयुत् देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर ने बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जनरल में एक लेख प्रकाशित कर यह बताने का प्रयत्ल किया है कि मेवाड़ के राजा ब्राह्मण(नागर) हैं । अपने मत की पष्टि में उन्होंने कई प्रमाण दिये हैं । वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के आहड से प्राप्त एक लेख में गहिल को आनन्दपुर से निकले हुए ब्राह्मणों के कुल को आनन्द देने वाला लिखा है।है । इसी तरह रावल समरसिंह के वि. स. 1331 को प्रशस्ति में बापा के लिए 'विप्न' शब्द का । प्रयोग किया गया है । वि. सं. 1517 की कुम्भलगढ़ प्रशस्ति तथा एकलिंगमहास्य में राणा को आनन्दपुर से निकले हए ब्राह्मण वंश को आनन्द देने वाला कहा गया है । नैणसी ने भी इन्हें । आदि रूप से बाह्मण तथा जानकारी से क्षत्रिय बताया है । इसी तरह कई स्थानों में 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द का प्रयोग इनके लिए किया जाना भी भण्डारकर इन्हें ब्राह्मण मानने का प्रमाण मानते हैं ।
डॉ. ओझा ने इन सभी दलीलों को अस्वीकार किया है और जिन प्रशस्तियों से गुहिलों को ब्राह्मण वंश से उत्पन्न प्रमाणित किया गया है उन्हीं शिलालेखों में गुहिलों को क्षत्रिय सम्बोधित किया जाना बताकर उन्होंने ब्राह्मण वंश से उत्पन्न बताने वाले मत का विरोध किया है । 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द के सम्बन्ध में डाॅ . ओझा मानते हैं कि इस शब्द का यही अभिप्राय है कि 'ब्राह्मण और क्षत्रिय गुणयुक्त' दोनों गुण जिसमें हों । उनकी यह भी मान्यता है कि 'विप्र' शब्द का प्रयोग, जो चित्तौड़ की 1331 वि. सं. की प्रशस्ति में किया गया है, वह बापा के पूर्वजों का । ब्राह्मण धर्मपालन का द्योतक है, न कि उसके ब्राह्मण कुल से पैदा होने का ।
मुझे भी कुछ समय पूर्व कुम्भलगढ़ प्रशस्ति की द्वितीय पट्टिका का खोया हुआ पूरा पद्यांश प्राप्त हुआ जिसको मैंने बिहार रिसर्च सोसायटी जनरल में सम्पादित किया । इसके सम्पादन से में इस नतीजे पर पहुँचा कि गुहिलवंशीय शासक ब्राह्मणवंशीय थे, क्योंकि महाराजा कुम्भा ने बड़ी छानबीन के बाद अपने वंश के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ब्राह्मणवंशीय होना अंकित करवाया था । अभाग्यवश इस पट्टिका को पीछे से नष्ट करवा दिया गया, परन्तु इसका सभी पद्यांश ' प्रशस्ति ' संग्रह में सुरक्षित बना रहा जिससे इस वंश के ब्राह्मणवंश से माने जाने में 15वीं शताब्दी तक कोई सन्देह नहीं रह जाता । वैसे भी यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय शासक वंशों में कण्व, शुंग आदि वंश ब्राह्मणवंशीय थे, जिन्होंने अपने प्रताप से प्रतिष्ठित शासकों में स्थान प्राप्त कर लिया था । यदि ये वंश ब्राह्मणवंशीय थे तो नागदा के गुहिलों का ब्राह्मणवंशीय होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । बापा को हारीत द्वारा, जो ब्राह्मण थे, राज्य प्राप्त होने की कथा भी बापा का ब्राह्मण वंश से होना प्रमाणित करता है । नैणसी द्वारा लिखित कथा, जिसमें विजयादित्य का बापा का पोषण करना और उसकी 10 पीढ़ी तक राजाओं का ब्राह्मण धर्म के आचार का परिपालन करना आदि इन्हें ब्राह्मणवंशीय प्रमाणित करती है । इससे भी एक बडे महत्त्व की बात है कि 12वीं शताब्दी के पहले किसी लेख में स्पष्ट रूप से गुहिलों को सूर्यवंशीय नहीं लिखा है । सूर्यवंशी या क्षत्रिय लिखने की परिपाटी चित्तौड़ के 1278 के लेख के आस-पास अपनायी गयी प्रतीत होती है । आगे चलकर 28वीं शताब्दी में इस प्रकार के प्रचलन ने बल पकड़ लिया । 977 ई. के आटपुर लेख में काल भोज को 'अर्कसम' अर्थात 'सूर्य की भाँति' लिखा है न कि सूर्यवंशीय । यह तो निर्विवाद है कि 7वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक भी गुहिलवंशीय अपने आपको ब्राह्मणवंशीय मानते रहे और इसीलिए इनके लिए प्रशिस्तकार 'विप्र', 'विप्रकुल' आदि शब्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग करते रहे । इसी प्रकार 'ब्रह्माक्षत्र' शब्द का प्रयोग प्रशिस्तकार इसीलिए करते रहे कि इन्होंने ब्राह्मण होते हुए क्षत्रियोचित काम से अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया था । फिर भी इस दिशा में अधिक खोज अपेक्षित है । इस
सम्पूर्ण विवाद को समाप्त करने के लिए एक तो सामग्री का अभाव है और दूसरा इस प्रश्न को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से निर्णय करने के बजाय भावुकता से निर्णय करने का दृष्टिकोण बनता जा रहा है, जिससे खोज की वृत्ति गौण बनती जा रही है ।
• गुहिलों का राजस्थान में विस्तार •
ऐसा अनुमानित होता है कि प्रारम्भ में गुहिल मेवाड़ में शक्तिशाली बने और तदनन्तर इसी वंश के अन्य प्रतिभाशाली व्यक्ति राजस्थान के तथा अन्य भागों में जाकर बस गये । क्योंकि गुहिल इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली था, इसके वंशज जहाँ-जहाँ जाकर बसे और जहाँ-जहाँ उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये, उन्होंने अपने आपको गुहिलवंशीय ही माना । उन्होंने अपने-अपने वंशक्रम को भी गुहिल से ही आरम्भ किया । 7वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक मिलने वाले शिलालेखों और ताम्रपत्रों से इन विभिन्न शाखाओं के विषय में हमें जानकारी प्राप्त होती है । रावल समरसिंह के समय वि. सं. 1331 (ई. सं. 1274) की चित्तौड़ की प्रशस्ति से गुहिलवंश की अनेक शाखाओं के होने का बोध होता है । मुँहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का जिक्र किया है । कर्नल टॉड ने भी उनके गुरु ज्ञानचन्द्र के माण्डल के उपासरे के संग्रहालय के आधार पर गुहिलों की 24 शाखाओं को माना है जिनकी नामावली में नैणसी की नामावली से यत्र-तत्र विभिन्नता है । इनमें कल्याणपुर के गहिल, वागड़ के गुहिल, चाटसू के गुहिल, मारवाड़ के गुहिल, धोड़ के गुहिल, काठियावाड़ के गुहिल, मेवाड़ के गुहिल, आदि अधिक प्रसिद्ध हैं ।
• कल्याणपुर के गुहिल •
कल्याणपुर से प्राप्त 7वीं शताब्दी के ताम्रपत्रों से प्रमाणित होता है कि गुहिलवंशीय राजा पद्र ने एक शिवालय का निर्माण कराया और उसी शाखा में देव गण, भाविहित, भेति आदि
कई शासक हुए ।
• चाटसू के गुहिल •
चाटसू और नागर, जो जयपुर जिले में हैं, पूर्व मध्यकालीन काल में गुहिलवंशीय शाखा के अधिकार में थे । इस शाखा का संस्थापक भर्तृभट्ट था जिसमें ब्राह्मण तथा क्षत्रियोचित गुणों का समावेश था । इसी वंश में ईशान, भट्ट, उपेन्द्रभट्ट और गुहिल हए जिनमें से एक बड़ा विद्वान था । गुहिल का पुत्र बड़ा धर्मात्मा था जिसने नगर में शिव के अभिषेक के लिए तथा धर्म प्राप्ति के लिए एक बावली का निर्माण करवाया था । धनिक के बाद इस वंश के कई प्रतापी शासक हुए जिनमें आहुक, कृष्णराज, शंकरगण, नागभट्ट द्वितीय, हर्ष आदि मुख्य हैं । शंकरगण के सम्बन्ध में चाटसू लेख से ज्ञात होता है कि उसने गौड़ों को परास्त कर अपना राज्य मध्य प्रदेश तक प्रसारित किया । इसने महामहीमृत की कन्या यज्ञा से विवाह किया और अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया । इसका लड़का हर्ष और हर्ष का पुत्र भोज प्रथम भी बड़े शक्तिशाली, शासक थे जिन्होंने सम्भवत : अरबों को पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त की थी । इसी तरह इसी शाखा के गुहिल द्वितीय, भट्ट, बालादित्य आदि शासक हुए थे जिन्होंने प्रतिहारों को उनके शत्रुओं को परास्त करने में सहयोग दिया था और पीछे से सम्भवतः इस शाखा के शासकों ने चौहानों की अधीनता स्वीकार कर ली । ऐसे ही अजमेर जिले के नासूण गाँव से मिले हुए वि. सं. 887 (ई. सं. 830 ) के शिलालेख से यह भी अनुमान होता है कि चाटसू के गुहिलवंशियों की एक शाखा का अधिकार उस समय अजमेर के आस-पास के प्रदेश पर भी रहा था ।
• मालवा के गुहिल •
जैसा कि हमने ऊपर पढा है, भर्तभट्ट गुहिलवंशीय राजाओं का अधिकार प्रारम्भ में चाटसू के आस-पास था, वे कालान्तर में मालवा की ओर आकर बस गये । धार के पास इंगोदा के वि. सं. 1190 (ई. सं. 1133) के दानपत्र से भर्तृभट्ट के वंशज पृथ्वीपाल, तिहूणपाल और विजयपाल के नाम उपलब्ध होते हैं । सम्भवतः परमारों और सोलंकियों के संघर्ष से लाभ उठाकर इन राजाओं ने मालवा क्षेत्र के कुछ भागों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया हो और जब कुमारपाल ने परमार बल्लाल को वि. सं. 1208 (ई. सं. 1151) में परास्त कर फिर मालवा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया तब यहाँ की गुहिल शाखा के शासक कुमारपाल मालवा के सामन्त बन गये । इस वंश के शासकों में पृथ्वीपाल, तिहूणपाल, विजयपाल, सूरजपाल, अमृतपाल, सोमेश्वर तथा विजयपाल विशेष उल्लेखनीय हैं ।
• वागड के गुहिल •
ऐसा प्रतीत होता है कि मालवा के विजयपाल ने (1199 वि. - 1133 ई.) कुमारपाल के सामन्त रहते हुए वागड के कुछ भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया । इसके पश्चात् इसका पुत्र सुरजपाल वहां का शासक रहा, परन्तु जब वि. सं. 1228 (ई. सं. 1171) के आस-पास सामन्तसिंह कीतु सोनगरा के द्वारा मेवाड़ से निकाला गया तो उसने ई. सं. 1181 के आस-पास सूरजपाल के पुत्र अनंगपाल या उसके भाई अमृतपाल के वागड का राज्य छीन लिया और वह वहां का स्वतन्त्र शासक बन गया परन्तु वि. स. 1242 (ई. सं. 1185) के ताम्रपत्र से मालूम होता है कि सामन्तसिंह से गुजरात के शासक ने वागड का राज्य छीनकर फिर से अमृतलाल के सुपुर्द किया । कुछ समय तक वागड गुजरात के अधीन इस शाखा के द्वारा बना रहा, परन्तु कुछ लेखों से प्रमाणित होता है कि मेवाड़ के गुहिलवंशीय जयसिंह और तत्पश्चात् सीहड ने 12वीं सदी के मध्य में वागड पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । क्योंकि ये गुहिल मेवाड़ के आहड से यहाँ आये थे, 'आहडा' कहलाये । डूँगरपुर राज्य की ख्यातें सम्भवतः इसी आधार पर सीहड को डूँगरपुर राज्य का संस्थापक मानती हैं ।
• धोड के गुहिल •
धोड जो जहाजपुर के निकट है, पहले गुहिल की एक शाखा के अधीन था जैसा 725 ई. के एक लेख से प्रमाणित है । सम्भवतः धोड के गुहिल धवलप्पदेव के, जो चित्तौड़ का मौर्य शासक था, सामन्त थे ।
• काठियावाड़ और मारवाड़ के गुहिल •
काठियावाड़ के गोहिलों के दो प्राचीन शिलालेखों से (वि. सं. 1202 व वि. सं. 1287) स्पष्ट है कि यह गुहिलों की शाखा सोलंकी राजा सिद्धराज और कुमारपाल की सामन्त थी जो कुछ समय सौराष्ट्र में शासन करती रही । मारवाड़ में गुहिलवंशीय राजपूत बसे थे जिन्हें 14वीं शताब्दी में आस्थान ने पराजित किया ।
• मेवाड़ के गुहिलों का उत्थान •
इन सभी शाखाओं में मेवाड़ के गुहिल अधिक प्रसिद्ध हैं जो आनन्दपुर (वडनगर) से आकर यहाँ बस गये, परन्तु यह निश्चित रूप से कहना बड़ा कठिन है कि मेवाड़ के गुहिल, जिनकी प्रसिद्धि सर्वमान्य थी, इन विभिन्न शाखीय गुहिलों से किस प्रकार सम्बन्धित थे । शिलालेखों में जहाँ-जहाँ विभिन्न शाखा के गुहिलों का वर्णन मिलता है उन्हें 'महाराज' या 'राज्य' शब्द से सम्बोधित किया गया है । इन विरुदों से इतना अवश्य स्पष्ट है कि या तो ये स्थानीय शासक-मात्र थे या किसी के सामन्त थे । मालवा तथा काठियावाड़ के गुहिल, उदाहरणार्थ, सोलंकियों के सामन्त थे और धोड के गुहिल मौयों के, परन्तु सभी शाखाओं का सम्बन्ध गुहिल से जोड़ा जाना यह अवश्य संकेत करता है कि इनका मूल पुरुष गुहिल था और जिससे सम्बन्धित चाटसू, नगर (जयपुर जिले में), नासूण (अजमेर जिले में),वागड,मारवाड़ आदि की गुहिल शाखाएँ थीं और इनका राज्य बड़ा विस्तार में था । हूण राजा मिहिरकुल के पीछे राजस्थान के अधिकांश तथा उसके
समीपवर्ती प्रदेशों पर गुहिल का राज्य रहा हो तो कोई आश्चय नहीं । आगरा के पास ई. सं. 1869 में प्राप्त 2000 से अधिक चाँदी के सिक्के तथा 9 ताबे के सिक्के, जो श्री रोशनलाल सांभर के संग्रह में हैं, प्रमाणित करते हैं कि गुहिल एक स्वतन्त्र तथा विस्तृत राज्य का स्वामी था । मिहिरकुल के पीछे गुहिल के ही सिक्के मिलना उसके प्रभाव के द्योतक हैं । वैसे तो गुहिल का ठीक समय ज्ञात नहीं है, पर डाँ. ओझा का सुझाव है कि यदि उसके पाँचवे या छठे वंशधर शिलादित्य का वि.सं. 703 (ई. सं. 646) के साँभोली के लेख से अनुमान लगाया जाय और प्रत्येक शासक का काल औसतन 20 वर्ष मान लिया जाय तो गुहिल का समय वि. सं. 623 (566 ई) के पास स्थिर किया जा सकता है । परन्तु इस तिथि को मानने में यह आपत्ति है कि प्रथम तो शील के पहले यदि बापा को माना जाय, जैसा हम आगे बतायेंगे तो इस औसत से गुहिल का समय और पीछे चला जाता है । इसके अतिरिक्त वि. सं. 741 (684 ई.) के नगर के शिलालेख से जो भर्तृभट्ट वंशीय गुहिलों का पता लगता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि 564 ई. के लगभग तो भर्तृभट्ट ही हुआ था । इस लेख से जब भर्तभट्ट वंशीय गुहिल को अपना आदि पुरुष मानते हैं तो गुहिल का समय सहज में पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँच जाता है ।
• गुहिल के उत्तराधिकारी •
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि गुहिला के उत्तराधिकारी किस क्रम में थे । कुछ एक समसामयिक शिलालेखों की सहायता से गुहिल के पीछे होने वाले मेवाड़ के कुछ शासकों के नाम और वर्णन पर कुछ प्रकाश पड़ता है , जिनमें शील, अपराजित, भर्तृभट्ट, अल्लट, नरवाहन, शक्तिकमार, विजयसिंह आदि प्रमुख हैं, परन्तु इन शासकों के बीच में होने वाले कतिपय शासकों के नाम पिछले शिलालेखों या भाटों की वंशावलियों से ही लिये जा सकते हैं । इस प्रकार वंश-क्रम की पूर्ति कुछ तो जाँच की कसौटी में ठीक उतरती है और कुछ काल्पनिक ही रह जाती है । उदाहरण के लिए, गुहिल से शील के बीच के शासकों के जो नाम खुम्माण महायक आदि के मिलते हैं वे पिछली पोथियों से लिये गये प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में जिन शासकों के कुछ शिलालेख या वर्णन के सामयिक साधन नहीं मिलते उनके विषय में अधिकार से लिखना कठिन है, परन्तु गुहिल के बाद मान्यता प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है । विद्वानों का मतभेद है कि बापा का मेवाड़ के वंश-क्रम में गुहिल के पीछे कहाँ स्थान रखा, परन्तु बापा का नाम गुहिल की तुलना में भी कभी-कभी बढ़ जाता है तो हम बापा का वर्णन गहिल के पीछे करना उपयुक्त समझेंगे । कोई आश्चर्य नहीं कि बापा गुहिल का उत्तराधिकारी या वंश - क्रम में निकटवर्ती समय का शासक रहा हो ।
• गुहिलवंशीय अन्य शासक •
नाथों की प्रशस्ति के अनुसार गुहिल के बाद यदि कोई बहुत महत्त्वशाली इस वंश का शासक था तो वह बापा था आटपुर की प्रशस्ति (977 ई.) में गुहिल के अन्य वंशधरों में भोज, महेन्द्र और नाग के नाम क्रमशः मिलते हैं । भोज के
सम्बन्ध में समरसिंह के आबू के शिलालेख (1285 ई.) में वर्णित कि श्रीपति का उपासका था और उसकी धार्मिक प्रवृति श्लाघनीय थी । उसके तांबे के दो सिक्क जो उपलब्ध है । प्रमाणित करते हैं कि उसने गुहिल और बापा की भाँति अपने समय में राजनीतिक व्यवस्था का बनाये रखा परन्त इसके उत्तराधिकारी महेन्द्र तथा नाग इस पैतृक प्रतिष्ठा को बनाये रखने में असमर्थ सिद्ध हुए । मेवाड़ के भीलों ने महेन्द्र से उसके अधिकार की भूमि को छीन लिया और उसकी हत्या कर दी । नाग केवल मात्र नागदा और उसके आस-पास की भूमि को ही अपने अधिकार में रख पाया । नागदा में अधिक समय रहने के कारण आगे चलकर यह मान्यता बन गयी कि नाग ने ही नागद्रह या नागदा बसाया था । वास्तव में प्राचीन जनश्रुति से नागहद या नागदृह (नागदा) बड़ा प्राचीन नगर रहा है और उसका सम्बन्ध नागवंशियों से या जनमेजय से माना जाता है । सम्भवतः महेन्द्र और नाग के समय में आंशिक विघटन भी हुआ हो । गुहिल की मुख्य शाखा से कल्याणपुर के गुहिलवंशियों का अलग होना इसी काल के आस-पास प्रतीत होता है । उन्होंने इसी समय अपनी स्थानीय स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इस धारणा की पुष्टि कल्याणपुर के प्राचीन दानपत्रों से होती है ।
• शिलादित्य •
भील फिर भी अपनी विजय को दीर्घकाल तक न भोग सके, क्योंकि नाग के उत्तराधिकारी शिलादित्य ने नागदा के आस-पास की भूमि शीघ्र ही भीलों से छीन ली । शील की विजय और प्रतिभा की सुविस्तृत तालिका सामोली के वि. सं. 703 (646 ई.) के अभिलेख में उपलब्ध हैं । उसमें लिखा है कि शील शत्रुओं को जीतने वाला, गुरुजनों, ब्राह्मणों और अपने कुल को आनन्द देने वाला था । वह अपने वंश के लिए चन्द्र-तुल्य था । इस वर्णन से स्पष्ट है कि उसने अपने शत्रुओं को परास्त कर तथा भीलों को दबा कर गुहिल, बापा और भोज की भाँति फिर से अपने नाम के तांबे के सिक्के चलाकर अपनी राजनीतिक स्थिति की स्थिरता का परिचय दिया । इस प्रकार की स्थिरता और सुव्यवस्था से प्रभावित होकर वटनगर के कई वणिक समुदाय, जिनका मुखिया जेजक था, दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड़ में आकर बसे । जेजक ने आरण्यक गिरि में लोगों के जीवन-रूपी खनिज का साधन उपस्थित किया । ये खनिज का संकेत 'जावर माइन्स' से है जो मेवाड़ के लिए समृद्धि का बड़ा साधन बना रहा है । उसी भाग में अरण्यवासिनी देवी के मन्दिर का उल्लेख शिलादित्य के काल की धर्म-परायणता प्रकट करता है ।
• अपराजित •
शिलादित्य द्वारा स्थापित गुहिलों की प्रतिष्ठा अपराजित ने परिवर्द्धित की जैसा कि नागदे के कण्डेश्वर के वि. सं. 718 (661 ई.) के लेख से प्रमाणित होता है । उसके सम्बन्ध में उक्त लेख से हमें यह सूचना मिलती है कि अपराजित ने अपने शत्रुओं का नाश किया जो राजा उससे विमुख हो गये थे या जो पहले से ही विरुद्ध थे उनका दमन किया । ऐसा प्रतीत होता
है कि उसने अपनी सैनिक-शक्ति को खूब बढाया । उसने महाराज वरसिंह को अपना सेनापति बनाया । इसी सेनापति की स्त्री अरुन्धति ने विष्णु मन्दिर के निर्माण द्वारा अपने वित्त का उचित उपयोग किया । इस प्रशस्ति में दामोदर नामी लेखक और यशोभट नामी उत्कीर्णक का उल्लेख संस्कृत के प्रचार और कलात्मक उन्न्ति पर प्रकाश डालते हैं । शील के द्वारा स्थापित शौर्य परम्परा के परिवर्द्धन के साथ अपराजित ने सैनिक व्यवस्था में कुशलता तथा विद्यानुराग का परिचय दिया था ।
• कालभोज •
अपराजित के बाद उसका पौत्र कालभोज (महेन्द्रसिंह द्वितीय का पुत्र) मेवाड़ का शासक हुआ । क्योंकि उसके तथा अपराजित के समय के बीच में उसके पिता महेन्द्र का शासन रहा । था अतः उसका समय 7वीं शताब्दी के अन्त या आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रखा जा सकता है । उसके सम्बन्ध में 1285 ई. के आबू के लेख में वर्णन है कि उसने कर्नाटक के स्वामी को दण्ड दिया और चौड की स्त्रियों के सौभाग्य को समाप्त किया । इस उल्लेख की सहायता इतनी ही हो सकती है कि कालभोज ने कन्नौज के यशोवर्मन को उसके दक्षिण के अभियान में सहायता पहुँचायी हो या वह स्वयं विनयादित्य के विरुद्ध लड़ा हो, जिसके बारे में बताया गया है कि उसने उत्तरी भारत की ओर सैनिक अभियान का दावा किया था । उसकी सैनिक योग्यता का परिचय नागदे के लेख से प्रमाणित है । आटपुर के लेख में कालभोज को सूर्य समान तेजस्वी और आबू लेख में अपने वंश की शाखा में मुकटमणि से सदृश्य बताया है ।
• खुम्माण प्रथम •
कालभोज का पुत्र खुम्माण प्रथम मेवाड़ का शासक हुआ । मेवाड़ के इतिहास में खुम्माण नाम सभी शासकों के साथ प्रशंसात्मक रूप से लगाया जाता था । इस प्रवृत्ति से प्रभावित होकर कर्नल टॉड ने उसके समय में बगदाद के खलीफा अलमायूँ के द्वारा चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन किया है और बताया है कि उसने आक्रमणकारियों को परास्त किया । डाँ . ओझा ने आक्रमण को खुम्माण प्रथम के बजाय खुम्माण द्वितीय के समय माना है । रायचौधरी ने खुम्माण का समय आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मानते हुए बताया है कि जुन्नीद की फौजों ने जो सिन्ध का अरब अधिकारी था मीरामाड,(मरुमाड, जोधपुर और जैसलमेर), मण्डला(मण्डोर), बरवास(बीच), उज्जीन, (उज्जैन), अल मलिवह (मालवा) और जुर्ज (गुर्जर) के भागों पर आक्रमण किया । नवसारी के लेख से भी अरब आक्रमण की ओर संकेत होता है । सम्भव है कि इस आक्रमण के समय खुम्माण ने अरावली श्रेणी में कहीं अपनी सीमा सुरक्षा के सम्बन्ध में ख्याति की हो।
• मेवाड़ का पुन : शक्ति-संगठन •
परन्तु खुम्माण तृतीय (877 - 926 ई.) ने मेवाड़ को इस स्थिति से उभारा । 1247 ई. के चित्तौड़ अभिलेख में खुम्माण तृतीय को उसके अधीन राजाओं का मुकटमणि और उनसे प्रक्षालित चरण वाला बताया है । 1439 ई. के सादड़ी अभिलेख में उसके द्वारा सुवर्ण तलादान का उल्लेख है जो उसकी समृद्धि का द्योतक है । कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में भी उसे अंगों, कलिंगों, सौराष्टों, तेलंगों, द्रविडों और गौड़ों का विजेता कहा गया है । हो सकता है कि यह अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हो, परन्तु इससे इतना अवश्य स्पष्ट है कि उसने अपने राज्य-विस्तार के लिए प्रयत्न किया और मेवाड़ के अधिकांश भागों को पुनः अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया ।
• भर्तृभट्ट द्वितीय •
खुम्माण के पुत्र भर्तृभट्ट द्वितीय को 977 ई. के आटपुर लेख में तीनों लोकों का तिलक बताया है । उसी लेख में अंकित है कि उसने राष्ट्रकूट वंश की राणी महालक्ष्मी से विवाह किया । 942 ई. से प्रतापगढ़ के अभिलेख में उसे महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया है । कृष्ण तृतीय के वर्णन से उसका चित्रकूट लेना प्रमाणित होता है । प्रतापगढ़ के लेख से हमें सचना मिलती है कि भर्तभट्ट द्वितीय ने धोटार्सी गाँव में (प्रतापगढ़ से 7 मील पूर्व में) इन्द्रराजादित्यदेव नामक राजा ने सूर्य-मन्दिर को पलास कूपिका (परासिया मन्दसौर से 15 मील दक्षिण में) गाँव में बम्बूलिका खेत भेंट किया । 943 ई. के आहड के एक खण्डित लेख में उसके समय में आदिवराह पुरुष के द्वारा गंगोद्भव तीर्थ में आदिवराह के मन्दिर निर्माण का उल्लेख है । भर्तृभट्ट का देहांत 943 और 951 ई. के बीच किसी समय हुआ ।
• अल्लट •
भर्तृभट्ट का पुत्र अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुराव कहा है, 10वीं शताब्दी के मध्य भाग के आस-पास मेवाड़ का स्वामी बना । उसके पिता तथा प्रपितामह के कार्यों से उसको अपने समय का शक्तिसम्पन्न तथा सफल शासक बनाने में बड़ी सहायता मिली । उस समय का राजनीतिक परिस्थिति से भी उसने लाभ उठाया हो ऐसा प्रतीत होता है । राष्टकट कई स्थाना पर प्रतिहारों को परास्त कर रहे थे । सिंहराज चौहान तथा धंग चन्देल भी प्रतिहारों में स्वतन्त्र होने में सफल थे । अल्लट ने भी बहुत सम्भव है, जैसा कि आहड के एक जैन मन्दिर का देव कुलिका के उपने की शक्तिकुमार के समय की प्रशस्ति से स्पष्ट है, अपने प्रबल शत्रु देवपाल परमार को परास्त किया । इस प्रकार की अल्लट द्वारा परमारों की पराजय में राष्ट्रकूटों की सहायता का भी बहुत बड़ा हाथ रहा हो, क्योंकि उसकी माता, जैसा कि कार वर्णित किया गया है, राष्ट्रकूटों की कन्या थी । इसी तरह हूण भी उसकी इस विजय में सहयोगी रहे हों, क्योकि हूण-परमार संघर्ष से ऐसी मैत्री होना स्वाभाविक था । इस मैत्री का सक्रिय रूप हम । अल्लट का विवाह हूण कन्या हरियादेवी में देखते हैं ।
अल्लट एक सम्पन्न और सफल शासक था जो अल्लट के 953 ई. के शिलालेख से प्रमाणित होता है । इस शिलालेख में उसके समय में आहड के वराह मन्दिर की स्थापना तथा उसके प्रबन्ध के लिए गोष्टिका निर्माण तथा मन्दिर की व्यवस्था के लिए स्थानीय करों का लगाया जाना उल्लेखित है, जो उस समय की सम्पन्न व्यवस्था का द्योतक है । उक्त लेख से शासकीय व्यवस्था का भी बोध होता है जिसमें मुख्यमन्त्री, संधिविग्रहिक, अक्षपटलिक, वंदिपदि, भिषगाधिराज के नाम अंकित हैं । इस लेख मे यह भी ज्ञात होता है कि उसके समय में मेवाड़ व्यापारिक केन्द्र भी बन गया था, जहाँ कर्नाटक, मध्य प्रदेश, लाट, टक्कदेश (पंजाब का एक भाग), आदि से व्यापारी आया-जाया करते थे । वैसे तो आहड 2000 ई. पू. के समय से ही अच्छा कस्बा था, परन्तु अल्लट ने इसके महत्त्व को अपने राज्यकाल की सम्पन्नता से अधिक बढ़ा दिया । सी कारण आघाट के संस्थापकों में उसकी गणना की जाती है
• नरवाहन •
नरवाहन अल्लट की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक बना । इसने भी अपने पुर्वजों की भाँति मेवाड़ राज्य को सुदृढ़ बनाये रखा । चौहानों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित रखने के लिए उसने चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया । शक्तिकुमार के समय के आहड के । 977 ई. के शिलालेख से मालूम होता है कि नरवाहन एक पराक्रमी और योग्य शासक था । प्रशस्तिकार ने उसके सम्बन्ध में लिखा है कि वह कलाप्रेमी, धीर, विजय का निवास स्थान और क्षत्रियों का क्षेत्र, शत्रुहन्ता, वैभव का निधि और विद्या की वेदी था । उसने अपने पिता के समय से चलने वाले शासन-प्रबन्ध को सम्भवतः यथाविधि बनाये रखा । उसके समय के एक शिलालेख से, जो आहड के देवकुलिका के छवते में लगा हुआ है, प्रतीत होता है कि शासक-वर्ग का पद पैतृक था । अल्लट के समय के अक्षपटलाधीश मयूर के पुत्र श्रीपति को करवाहन ने अक्षपटलाधीश नियत किया । नार्थों के मन्दिर के शिलालेख में (971 ई.) नरवाहन को शिव का उपासक कहा है
• मेवाड़ का ह्रास - काल (997 - 1174) •
नरवाहन के पीछे मेवाड की शक्ति का ह्रास आरम्भ होता है । शालिवाहन के समय में कई गुहिलवंशीय सोलंकियों की सेवा में जाकर रहे जो मेवाड़ के गुहिलों की शक्ति-क्षीणता प्रमाण है । इस दौर्बल्य का परिणाम यह हुआ कि शक्तिकुमार के समय में, जैसा कि सिद्ध अस्तिकुण्डों के शिलालेख (997 ई.) से स्पष्ट है कि मुंज ने आघाट को तोड़ा और प्रसिद्ध चित्तौड़ दुर्ग और उसके आस-पास के प्रदेश पर भी अधिकार स्थापित करने में सफल रहा । मुंज के उत्तराधिकारी और छोटे भाई सिंधुराज के पुत्र भोज ने चित्तौड़ में रहते हुए त्रिभुवन नारायण के मन्दिर का निर्माण कराया जो मोकलजी के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के अनुसार नागदे के भोजसर का निर्माण भोज के द्वारा हुआ था और 1022 ई. में उसके द्वारा नागदे में भूमिदान दिया गया था ।
ऐसा प्रतीत होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम-अर्द्ध अवधि तक मेवाड़ का कुछ भाग चित्तौड़ भी सम्मिलित था, परमारों के अधीन बना रहा । फिर ऐसा प्रतीत होता है कि परमारों से चालुक्य सिद्धराज ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया जो उसके पीछे उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के अधीन रहा ।
शक्तिकुमार के बाद अम्बा प्रसाद भी निर्बल शासक था जो चौहान राजा वाक्पतिराज के द्वारा परास्त किया गया और युद्ध में मारा गया । इसके बाद लगभग 10 शासक ऐसे हुए जो इतने प्रतिभासम्पन्न नहीं थे जो खोई हुई मेवाड़ की शक्ति को पुनः स्थापित कर सकें । इस समय की वंशावली भी अशुद्ध-सी है । कुछ निश्चित आधार पर इनकी नामावली में शचिवर्म, नरवर्म, कीर्तिवर्म, योगराज, वैरेट, हंसपाल, वैरिसिंह, विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह, विक्रमसिंह, आदि हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से हंसपाल ने (भैराघाट प्रशस्ति 1155 ई.) अपने निज शौर्य से शत्रुओं के समुदाय को अपने आगे झुकाया और वैरिसिंह ने परमारों से आहड लेकर उसके चारों ओर शहरपनाह और दरवाजे बनाकर अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया । वैरिसिंह के उत्तराधिकारी विजयसिंह के पालडी और कदमाल के भूमिदान से संकेत मिलता है । कि गहिलों का आहड के आस-पास के भागों पर पुनः अधिकार हो गया था । मालवा के उदयादित्य की लड़की से उसने विवाह कर तथा अपनी लड़की अल्हणदेवी का विवाह कलचूरी के शासक के साथ कर उसने अपनी शक्ति को संगठित किया और अपने समर्थकों की संख्या को बढ़ाया ।
विजयसिंह के पीछे अरिसिंह, चोडसिंह और विक्रमसिंह हुए जिनके विषय में हमें बहुत कम जानकारी है । विक्रमसिंह के पीछे उसका पुत्र रणसिंह मेवाड़ का शासक हुआ जिससे रावल और राणा शाखाएँ फटीं । रावल शाखा वाले मेवाड़ के शासक रहे जिनका अन्त अलाउद्दीन की चित्तौड़ विजय से हुआ और तब तक राणा शाखा वाले, जो सीसोदे के जागीरदार थे मेवाड़ के शासक बनते गये । रणसिंह ने, जिसे कर्णसिंह भी कहते हैं, आहोर के पर्वत पर किला बनवाया । उसके बाद क्षेमसिंह मेवाड़ का शासक बना जिसके सामन्तसिंह और कुमरसिंह दो लड़के थे । सामन्तसिंह ने 1174 ई. के आस-पास गुजरात के शासक, सम्भवतः अजयपाल से यद्ध किया और मेवाड़ का बहुत-सा भाग अपने अधिकार में कर लिया परन्तु सामन्तसिंह अपने पैतक राज्य को अधिक समय अपने अधिकार में नहीं रख सका । चौहान कीतू ने उसे मेवाड़ से निकाल दिया, तब उसे 1178 ई. के लगभग वागड में जाकर अपना नया राज्य स्थापित करना पड़ा । वटपद्रक (बड़ोंदा) उसके राज्य की राजधानी थी । 1285 ई. के समरसिंह के लेख से प्रमाणित होता है कि उसने मेवाड़ के सामन्तों की जागीरें छीन ली थीं । सम्भवतः सामन्तों को अप्रसन्न करने के कारण वह उनसे कोई सहायता प्राप्त नहीं कर सका हो और उसे अपने पैतृक राज्य से हाथ धोना पड़ा हो । सामन्तसिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की बहन पृथ्वीबाई से होना पाया जाता है । कीतू और पृथ्वीराज द्वितीय में अनबन रही जिससे सामन्तसिंह को कीतू के कोप का भाजन बनना पड़ा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
सामन्तसिंह के भाई मथनसिंह ने फिर से अपने वंश-परम्परागत राज्य को चौहान कीतू से छीना और अपने अधिकार में किया । उसके उत्तराधिकारी मथनसिंह और पद्मसिंह ने फिर से मेवाड़ की व्यवस्था स्थापित की उसने टांटेड जाति के उद्धरण को, जो दुष्टों को शिक्षा देने और शिष्टों का रक्षण करने में कुशल था, नागदा नगर का तलारक्ष नियुक्त किया । मथनसिंह के उत्तराधिकारी पद्मसिंह ने भी इसी उद्धरण के बड़े पुत्र योगराज को नागदा का तलारक्ष बनाया । इस प्रकार गुहिलों ने 13वीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथलपुथल होने पर भी, अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा । कभी उनके हाथ से चित्तौड़, कभी आहड और कभी नागदा भी निकलते रहे, परन्तु फिर भी उन्होंने हिम्मत न हारी और धीरे-धीरे एक-एक भाग को वे अपने अधीन करते रहे । ऐसी स्थिति बनने में सोलंकियों, परमारों और चौहानों की निर्बलता भी एक बहुत बड़ा कारण थी । केवल चित्तौड़ इनके अधिकर में पूरी तौर से न आ सका जिसको विजय करने का श्रेय पद्मसिंह के पुत्र जैत्रसिंह को है जिसका वर्णन हम यथास्थान करेंगे ।
हूण राजा मिहिरकुल के पीछे जिन राजपूत वंशों ने राजस्थान में अपने राज्य स्थापित किये उनमें गहिलवंशीय राजपूत मुख्य है । इस वंश में सर्वप्रथम गुहिल के प्रतापी होने के कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ आकर बसे उन्होंने अपने को गहिलवंशीय कहा ।
संस्कृत लेखों में इस वंश के लिए 'गुहिल', 'गुहिलपुत्र', 'गोभिलपत्र', 'गुहिलोत' और 'गौहिल्य' शब्दों का प्रयोग किया गया है । भाषा में इन्हें 'गहिल', 'गोहिल', 'गहलोत' और 'गेहलोत' कहते हैं । भाषा का 'गोहिल' रूप संस्कृत के 'गोभिल' और 'गौहिल्य' से बना है ।
• गुहिलों की उत्पत्ति •
गुहिलों के आदि निवास-स्थान तथा उत्पत्ति के विषय में कई भान्तियाँ प्रचलित हैं । अबुल फजल ने सरकार अजमेर के प्रसंग में मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल की सन्तान होना लिखा है । इसी आधार पर 'मासिरुलउमरा' तथा 'बिसातुल गनाइम' के कर्ताओं ने मेवाड़ के गुहिलों को नौशेरवां के वंशज मानकर यह लिखा है कि जब नौशेरवां जीवित था तो उसके पुत्र नौशेजाद ने, जिसकी माता रूम के कैसर की पुत्री थी, अपना प्राचीन धर्म छोड़कर ईसाई धर्म स्वीकार किया और वह बड़ी सेना के साथ हिन्दुस्तान में आया । यहाँ वह फिर अपने पिता के साथ लड़ने को ईरान पर चढ़ा और वहाँ मारा गया । उसकी सन्तान हिन्दुस्तान में ही रही । उसी के वंश में गुहिल हैं ।
कर्नल टॉड ने राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मानने के पक्ष की पुष्टि में फारसी तवारीखों के वर्णन को ठीक माना और जैन ग्रन्थों के आधार पर यह धारणा बनायी कि वल्लभी के शासक शिलादित्य के समय जो कनकसेन (144 ई.) के पीछे हुआ था, विदेशियों ने वल्लभी पर 524 ई. के आक्रमण पर उसे नष्ट कर दिया । उस समय शिलादित्य की राणी पुष्पावती ही, जो अम्बा भवानी की यात्रा के लिए गयी हुई थी, बच पायी । उसी ने गोह (गुहदत्त) को जन्म दिया जो आगे चलकर मेवाड़ का स्वामी बना । स्मिथ ने भी गुहिलों को विदेशी होना बताया है । वीर विनोद के लेखक कविराज श्यामलदास ने यह तो स्वीकार कर लिया कि गुहिलवंश वल्लभी से मेवाड में आया, परन्तु उन्होंने शिलादित्य के समय में वल्लभी पतन की टॉड की दलील से मतभेद प्रकट करते हुए यह लिखा है कि उस समय वल्लभी में कोई दूसरा राजा होगा जिसके मारे जाने के बाद उक्त खानदान की बड़ी शाखा (जिसमें गुहिलों और बापा हुए) मेवाड़ के अर्वली पहाड़ में आकर छपी । वल्लभी की गुहिल शाखा को मान्यता देने के साथ कविराज ने इसको क्षत्रियों की 36 शाखा के अन्तर्गत बताया है ।
डाॅ. ओझा ने कर्नल टॉड की इन सभी धारणाओं को कपोल-कल्पित बताया है, क्योंकि ई. सं. 144 में सौराष्ट्र का स्वामी कनकसेन नहीं, किन्तु क्षत्रप वंशीय राजा रुद्रदामा था । इसी तरह उनका कहना है कि कनकसेन के पाँचवीं पीढ़ी में विजयसेन का होना तथा नौशेजाद के हिन्दुस्तान में आने की मान्यता प्रमाणशून्य हैं । वह तो बगावत करने पर ईरान में ही मारा गया था, ऐसी स्थिति में भारतवर्ष में उसका आना निराधार है । इन आधारों से डाॅ. ओझा टॉड का मत अस्वीकार करते हुए यह लिखते हैं कि यदि वल्लभी का पतन टॉड के अनुसार 524 ई. में माना जाय तो शिलादित्य का यवनों के विरुद्ध युद्ध में मारा जाना, राणी पुष्पावती का मेवाड में आना और गुहा का वहाँ जन्म होना तिथिक्रम से असंगत है । यह तो प्रमाणित है कि नौशेरवां ईरान के तख्त पर 531 ई. में बैठा था तो फिर टॉड द्वारा दी गयी उपर्युक्त घटनाएँ 524 ई. में कैसे हो सकती हैं । ऐसी स्थिति में नौशेजाद या माहवान् के वंश में न तो वल्लभी के राजा ही हो सकते हैं और न गुहिल का इस वंश का होना ही सिद्ध होता है । इन दलीलों से डाॅ. ओझा गहिलों को विदेशियों से उत्पन्न नहीं मानते । वे तो यह विश्वास करते हैं कि गुहिलवंशीय राजपूत विशुद्ध सूर्यवंशीय है। अपने मत की पुष्टि में वे लिखते हैं कि बापा के सिक्के पर सूर्य का चिह इस मत का बहुत बड़ा प्रमाण है । वे यह भी लिखते हैं वि. सं. 1028 के शिलालख में गुहिलवंशीय राजाओं को रघुवंश की कीर्ति फैलाने वाले इसीलिए लिखा है कि वे सूर्यवंशीय क्षत्रिय हैं । इसी तरह वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के शिलालेख में उनको 'क्षत्रियों का उत्पत्ति-स्थान' बताना, वि. सं. 1342 के समरसिंह के लेख में उनको 'मूर्तिमान क्षात्रधर्म' कहना , वि . सं . 1485 के लेख में उनके लिए 'क्षत्रियवंश मण्डनमणि' शब्द का प्रयोग करना, वि. सं. 1557 के रायमल के लेख में उनको 'सूर्यवंशीय क्षत्रीय' लिखना आदि प्रमाण उदयपुर के राजवंश का सूर्यवंश होना सूचित करते हैं ।
श्रीयुत् देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर ने बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जनरल में एक लेख प्रकाशित कर यह बताने का प्रयत्ल किया है कि मेवाड़ के राजा ब्राह्मण(नागर) हैं । अपने मत की पष्टि में उन्होंने कई प्रमाण दिये हैं । वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के आहड से प्राप्त एक लेख में गहिल को आनन्दपुर से निकले हुए ब्राह्मणों के कुल को आनन्द देने वाला लिखा है।है । इसी तरह रावल समरसिंह के वि. स. 1331 को प्रशस्ति में बापा के लिए 'विप्न' शब्द का । प्रयोग किया गया है । वि. सं. 1517 की कुम्भलगढ़ प्रशस्ति तथा एकलिंगमहास्य में राणा को आनन्दपुर से निकले हए ब्राह्मण वंश को आनन्द देने वाला कहा गया है । नैणसी ने भी इन्हें । आदि रूप से बाह्मण तथा जानकारी से क्षत्रिय बताया है । इसी तरह कई स्थानों में 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द का प्रयोग इनके लिए किया जाना भी भण्डारकर इन्हें ब्राह्मण मानने का प्रमाण मानते हैं ।
डॉ. ओझा ने इन सभी दलीलों को अस्वीकार किया है और जिन प्रशस्तियों से गुहिलों को ब्राह्मण वंश से उत्पन्न प्रमाणित किया गया है उन्हीं शिलालेखों में गुहिलों को क्षत्रिय सम्बोधित किया जाना बताकर उन्होंने ब्राह्मण वंश से उत्पन्न बताने वाले मत का विरोध किया है । 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द के सम्बन्ध में डाॅ . ओझा मानते हैं कि इस शब्द का यही अभिप्राय है कि 'ब्राह्मण और क्षत्रिय गुणयुक्त' दोनों गुण जिसमें हों । उनकी यह भी मान्यता है कि 'विप्र' शब्द का प्रयोग, जो चित्तौड़ की 1331 वि. सं. की प्रशस्ति में किया गया है, वह बापा के पूर्वजों का । ब्राह्मण धर्मपालन का द्योतक है, न कि उसके ब्राह्मण कुल से पैदा होने का ।
मुझे भी कुछ समय पूर्व कुम्भलगढ़ प्रशस्ति की द्वितीय पट्टिका का खोया हुआ पूरा पद्यांश प्राप्त हुआ जिसको मैंने बिहार रिसर्च सोसायटी जनरल में सम्पादित किया । इसके सम्पादन से में इस नतीजे पर पहुँचा कि गुहिलवंशीय शासक ब्राह्मणवंशीय थे, क्योंकि महाराजा कुम्भा ने बड़ी छानबीन के बाद अपने वंश के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ब्राह्मणवंशीय होना अंकित करवाया था । अभाग्यवश इस पट्टिका को पीछे से नष्ट करवा दिया गया, परन्तु इसका सभी पद्यांश ' प्रशस्ति ' संग्रह में सुरक्षित बना रहा जिससे इस वंश के ब्राह्मणवंश से माने जाने में 15वीं शताब्दी तक कोई सन्देह नहीं रह जाता । वैसे भी यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय शासक वंशों में कण्व, शुंग आदि वंश ब्राह्मणवंशीय थे, जिन्होंने अपने प्रताप से प्रतिष्ठित शासकों में स्थान प्राप्त कर लिया था । यदि ये वंश ब्राह्मणवंशीय थे तो नागदा के गुहिलों का ब्राह्मणवंशीय होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । बापा को हारीत द्वारा, जो ब्राह्मण थे, राज्य प्राप्त होने की कथा भी बापा का ब्राह्मण वंश से होना प्रमाणित करता है । नैणसी द्वारा लिखित कथा, जिसमें विजयादित्य का बापा का पोषण करना और उसकी 10 पीढ़ी तक राजाओं का ब्राह्मण धर्म के आचार का परिपालन करना आदि इन्हें ब्राह्मणवंशीय प्रमाणित करती है । इससे भी एक बडे महत्त्व की बात है कि 12वीं शताब्दी के पहले किसी लेख में स्पष्ट रूप से गुहिलों को सूर्यवंशीय नहीं लिखा है । सूर्यवंशी या क्षत्रिय लिखने की परिपाटी चित्तौड़ के 1278 के लेख के आस-पास अपनायी गयी प्रतीत होती है । आगे चलकर 28वीं शताब्दी में इस प्रकार के प्रचलन ने बल पकड़ लिया । 977 ई. के आटपुर लेख में काल भोज को 'अर्कसम' अर्थात 'सूर्य की भाँति' लिखा है न कि सूर्यवंशीय । यह तो निर्विवाद है कि 7वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक भी गुहिलवंशीय अपने आपको ब्राह्मणवंशीय मानते रहे और इसीलिए इनके लिए प्रशिस्तकार 'विप्र', 'विप्रकुल' आदि शब्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग करते रहे । इसी प्रकार 'ब्रह्माक्षत्र' शब्द का प्रयोग प्रशिस्तकार इसीलिए करते रहे कि इन्होंने ब्राह्मण होते हुए क्षत्रियोचित काम से अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया था । फिर भी इस दिशा में अधिक खोज अपेक्षित है । इस
सम्पूर्ण विवाद को समाप्त करने के लिए एक तो सामग्री का अभाव है और दूसरा इस प्रश्न को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से निर्णय करने के बजाय भावुकता से निर्णय करने का दृष्टिकोण बनता जा रहा है, जिससे खोज की वृत्ति गौण बनती जा रही है ।
• गुहिलों का राजस्थान में विस्तार •
ऐसा अनुमानित होता है कि प्रारम्भ में गुहिल मेवाड़ में शक्तिशाली बने और तदनन्तर इसी वंश के अन्य प्रतिभाशाली व्यक्ति राजस्थान के तथा अन्य भागों में जाकर बस गये । क्योंकि गुहिल इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली था, इसके वंशज जहाँ-जहाँ जाकर बसे और जहाँ-जहाँ उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये, उन्होंने अपने आपको गुहिलवंशीय ही माना । उन्होंने अपने-अपने वंशक्रम को भी गुहिल से ही आरम्भ किया । 7वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक मिलने वाले शिलालेखों और ताम्रपत्रों से इन विभिन्न शाखाओं के विषय में हमें जानकारी प्राप्त होती है । रावल समरसिंह के समय वि. सं. 1331 (ई. सं. 1274) की चित्तौड़ की प्रशस्ति से गुहिलवंश की अनेक शाखाओं के होने का बोध होता है । मुँहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का जिक्र किया है । कर्नल टॉड ने भी उनके गुरु ज्ञानचन्द्र के माण्डल के उपासरे के संग्रहालय के आधार पर गुहिलों की 24 शाखाओं को माना है जिनकी नामावली में नैणसी की नामावली से यत्र-तत्र विभिन्नता है । इनमें कल्याणपुर के गहिल, वागड़ के गुहिल, चाटसू के गुहिल, मारवाड़ के गुहिल, धोड़ के गुहिल, काठियावाड़ के गुहिल, मेवाड़ के गुहिल, आदि अधिक प्रसिद्ध हैं ।
• कल्याणपुर के गुहिल •
कल्याणपुर से प्राप्त 7वीं शताब्दी के ताम्रपत्रों से प्रमाणित होता है कि गुहिलवंशीय राजा पद्र ने एक शिवालय का निर्माण कराया और उसी शाखा में देव गण, भाविहित, भेति आदि
कई शासक हुए ।
• चाटसू के गुहिल •
चाटसू और नागर, जो जयपुर जिले में हैं, पूर्व मध्यकालीन काल में गुहिलवंशीय शाखा के अधिकार में थे । इस शाखा का संस्थापक भर्तृभट्ट था जिसमें ब्राह्मण तथा क्षत्रियोचित गुणों का समावेश था । इसी वंश में ईशान, भट्ट, उपेन्द्रभट्ट और गुहिल हए जिनमें से एक बड़ा विद्वान था । गुहिल का पुत्र बड़ा धर्मात्मा था जिसने नगर में शिव के अभिषेक के लिए तथा धर्म प्राप्ति के लिए एक बावली का निर्माण करवाया था । धनिक के बाद इस वंश के कई प्रतापी शासक हुए जिनमें आहुक, कृष्णराज, शंकरगण, नागभट्ट द्वितीय, हर्ष आदि मुख्य हैं । शंकरगण के सम्बन्ध में चाटसू लेख से ज्ञात होता है कि उसने गौड़ों को परास्त कर अपना राज्य मध्य प्रदेश तक प्रसारित किया । इसने महामहीमृत की कन्या यज्ञा से विवाह किया और अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया । इसका लड़का हर्ष और हर्ष का पुत्र भोज प्रथम भी बड़े शक्तिशाली, शासक थे जिन्होंने सम्भवत : अरबों को पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त की थी । इसी तरह इसी शाखा के गुहिल द्वितीय, भट्ट, बालादित्य आदि शासक हुए थे जिन्होंने प्रतिहारों को उनके शत्रुओं को परास्त करने में सहयोग दिया था और पीछे से सम्भवतः इस शाखा के शासकों ने चौहानों की अधीनता स्वीकार कर ली । ऐसे ही अजमेर जिले के नासूण गाँव से मिले हुए वि. सं. 887 (ई. सं. 830 ) के शिलालेख से यह भी अनुमान होता है कि चाटसू के गुहिलवंशियों की एक शाखा का अधिकार उस समय अजमेर के आस-पास के प्रदेश पर भी रहा था ।
• मालवा के गुहिल •
जैसा कि हमने ऊपर पढा है, भर्तभट्ट गुहिलवंशीय राजाओं का अधिकार प्रारम्भ में चाटसू के आस-पास था, वे कालान्तर में मालवा की ओर आकर बस गये । धार के पास इंगोदा के वि. सं. 1190 (ई. सं. 1133) के दानपत्र से भर्तृभट्ट के वंशज पृथ्वीपाल, तिहूणपाल और विजयपाल के नाम उपलब्ध होते हैं । सम्भवतः परमारों और सोलंकियों के संघर्ष से लाभ उठाकर इन राजाओं ने मालवा क्षेत्र के कुछ भागों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया हो और जब कुमारपाल ने परमार बल्लाल को वि. सं. 1208 (ई. सं. 1151) में परास्त कर फिर मालवा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया तब यहाँ की गुहिल शाखा के शासक कुमारपाल मालवा के सामन्त बन गये । इस वंश के शासकों में पृथ्वीपाल, तिहूणपाल, विजयपाल, सूरजपाल, अमृतपाल, सोमेश्वर तथा विजयपाल विशेष उल्लेखनीय हैं ।
• वागड के गुहिल •
ऐसा प्रतीत होता है कि मालवा के विजयपाल ने (1199 वि. - 1133 ई.) कुमारपाल के सामन्त रहते हुए वागड के कुछ भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया । इसके पश्चात् इसका पुत्र सुरजपाल वहां का शासक रहा, परन्तु जब वि. सं. 1228 (ई. सं. 1171) के आस-पास सामन्तसिंह कीतु सोनगरा के द्वारा मेवाड़ से निकाला गया तो उसने ई. सं. 1181 के आस-पास सूरजपाल के पुत्र अनंगपाल या उसके भाई अमृतपाल के वागड का राज्य छीन लिया और वह वहां का स्वतन्त्र शासक बन गया परन्तु वि. स. 1242 (ई. सं. 1185) के ताम्रपत्र से मालूम होता है कि सामन्तसिंह से गुजरात के शासक ने वागड का राज्य छीनकर फिर से अमृतलाल के सुपुर्द किया । कुछ समय तक वागड गुजरात के अधीन इस शाखा के द्वारा बना रहा, परन्तु कुछ लेखों से प्रमाणित होता है कि मेवाड़ के गुहिलवंशीय जयसिंह और तत्पश्चात् सीहड ने 12वीं सदी के मध्य में वागड पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । क्योंकि ये गुहिल मेवाड़ के आहड से यहाँ आये थे, 'आहडा' कहलाये । डूँगरपुर राज्य की ख्यातें सम्भवतः इसी आधार पर सीहड को डूँगरपुर राज्य का संस्थापक मानती हैं ।
• धोड के गुहिल •
धोड जो जहाजपुर के निकट है, पहले गुहिल की एक शाखा के अधीन था जैसा 725 ई. के एक लेख से प्रमाणित है । सम्भवतः धोड के गुहिल धवलप्पदेव के, जो चित्तौड़ का मौर्य शासक था, सामन्त थे ।
• काठियावाड़ और मारवाड़ के गुहिल •
काठियावाड़ के गोहिलों के दो प्राचीन शिलालेखों से (वि. सं. 1202 व वि. सं. 1287) स्पष्ट है कि यह गुहिलों की शाखा सोलंकी राजा सिद्धराज और कुमारपाल की सामन्त थी जो कुछ समय सौराष्ट्र में शासन करती रही । मारवाड़ में गुहिलवंशीय राजपूत बसे थे जिन्हें 14वीं शताब्दी में आस्थान ने पराजित किया ।
• मेवाड़ के गुहिलों का उत्थान •
इन सभी शाखाओं में मेवाड़ के गुहिल अधिक प्रसिद्ध हैं जो आनन्दपुर (वडनगर) से आकर यहाँ बस गये, परन्तु यह निश्चित रूप से कहना बड़ा कठिन है कि मेवाड़ के गुहिल, जिनकी प्रसिद्धि सर्वमान्य थी, इन विभिन्न शाखीय गुहिलों से किस प्रकार सम्बन्धित थे । शिलालेखों में जहाँ-जहाँ विभिन्न शाखा के गुहिलों का वर्णन मिलता है उन्हें 'महाराज' या 'राज्य' शब्द से सम्बोधित किया गया है । इन विरुदों से इतना अवश्य स्पष्ट है कि या तो ये स्थानीय शासक-मात्र थे या किसी के सामन्त थे । मालवा तथा काठियावाड़ के गुहिल, उदाहरणार्थ, सोलंकियों के सामन्त थे और धोड के गुहिल मौयों के, परन्तु सभी शाखाओं का सम्बन्ध गुहिल से जोड़ा जाना यह अवश्य संकेत करता है कि इनका मूल पुरुष गुहिल था और जिससे सम्बन्धित चाटसू, नगर (जयपुर जिले में), नासूण (अजमेर जिले में),वागड,मारवाड़ आदि की गुहिल शाखाएँ थीं और इनका राज्य बड़ा विस्तार में था । हूण राजा मिहिरकुल के पीछे राजस्थान के अधिकांश तथा उसके
समीपवर्ती प्रदेशों पर गुहिल का राज्य रहा हो तो कोई आश्चय नहीं । आगरा के पास ई. सं. 1869 में प्राप्त 2000 से अधिक चाँदी के सिक्के तथा 9 ताबे के सिक्के, जो श्री रोशनलाल सांभर के संग्रह में हैं, प्रमाणित करते हैं कि गुहिल एक स्वतन्त्र तथा विस्तृत राज्य का स्वामी था । मिहिरकुल के पीछे गुहिल के ही सिक्के मिलना उसके प्रभाव के द्योतक हैं । वैसे तो गुहिल का ठीक समय ज्ञात नहीं है, पर डाँ. ओझा का सुझाव है कि यदि उसके पाँचवे या छठे वंशधर शिलादित्य का वि.सं. 703 (ई. सं. 646) के साँभोली के लेख से अनुमान लगाया जाय और प्रत्येक शासक का काल औसतन 20 वर्ष मान लिया जाय तो गुहिल का समय वि. सं. 623 (566 ई) के पास स्थिर किया जा सकता है । परन्तु इस तिथि को मानने में यह आपत्ति है कि प्रथम तो शील के पहले यदि बापा को माना जाय, जैसा हम आगे बतायेंगे तो इस औसत से गुहिल का समय और पीछे चला जाता है । इसके अतिरिक्त वि. सं. 741 (684 ई.) के नगर के शिलालेख से जो भर्तृभट्ट वंशीय गुहिलों का पता लगता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि 564 ई. के लगभग तो भर्तृभट्ट ही हुआ था । इस लेख से जब भर्तभट्ट वंशीय गुहिल को अपना आदि पुरुष मानते हैं तो गुहिल का समय सहज में पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँच जाता है ।
• गुहिल के उत्तराधिकारी •
निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि गुहिला के उत्तराधिकारी किस क्रम में थे । कुछ एक समसामयिक शिलालेखों की सहायता से गुहिल के पीछे होने वाले मेवाड़ के कुछ शासकों के नाम और वर्णन पर कुछ प्रकाश पड़ता है , जिनमें शील, अपराजित, भर्तृभट्ट, अल्लट, नरवाहन, शक्तिकमार, विजयसिंह आदि प्रमुख हैं, परन्तु इन शासकों के बीच में होने वाले कतिपय शासकों के नाम पिछले शिलालेखों या भाटों की वंशावलियों से ही लिये जा सकते हैं । इस प्रकार वंश-क्रम की पूर्ति कुछ तो जाँच की कसौटी में ठीक उतरती है और कुछ काल्पनिक ही रह जाती है । उदाहरण के लिए, गुहिल से शील के बीच के शासकों के जो नाम खुम्माण महायक आदि के मिलते हैं वे पिछली पोथियों से लिये गये प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में जिन शासकों के कुछ शिलालेख या वर्णन के सामयिक साधन नहीं मिलते उनके विषय में अधिकार से लिखना कठिन है, परन्तु गुहिल के बाद मान्यता प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है । विद्वानों का मतभेद है कि बापा का मेवाड़ के वंश-क्रम में गुहिल के पीछे कहाँ स्थान रखा, परन्तु बापा का नाम गुहिल की तुलना में भी कभी-कभी बढ़ जाता है तो हम बापा का वर्णन गहिल के पीछे करना उपयुक्त समझेंगे । कोई आश्चर्य नहीं कि बापा गुहिल का उत्तराधिकारी या वंश - क्रम में निकटवर्ती समय का शासक रहा हो ।
• गुहिलवंशीय अन्य शासक •
नाथों की प्रशस्ति के अनुसार गुहिल के बाद यदि कोई बहुत महत्त्वशाली इस वंश का शासक था तो वह बापा था आटपुर की प्रशस्ति (977 ई.) में गुहिल के अन्य वंशधरों में भोज, महेन्द्र और नाग के नाम क्रमशः मिलते हैं । भोज के
सम्बन्ध में समरसिंह के आबू के शिलालेख (1285 ई.) में वर्णित कि श्रीपति का उपासका था और उसकी धार्मिक प्रवृति श्लाघनीय थी । उसके तांबे के दो सिक्क जो उपलब्ध है । प्रमाणित करते हैं कि उसने गुहिल और बापा की भाँति अपने समय में राजनीतिक व्यवस्था का बनाये रखा परन्त इसके उत्तराधिकारी महेन्द्र तथा नाग इस पैतृक प्रतिष्ठा को बनाये रखने में असमर्थ सिद्ध हुए । मेवाड़ के भीलों ने महेन्द्र से उसके अधिकार की भूमि को छीन लिया और उसकी हत्या कर दी । नाग केवल मात्र नागदा और उसके आस-पास की भूमि को ही अपने अधिकार में रख पाया । नागदा में अधिक समय रहने के कारण आगे चलकर यह मान्यता बन गयी कि नाग ने ही नागद्रह या नागदा बसाया था । वास्तव में प्राचीन जनश्रुति से नागहद या नागदृह (नागदा) बड़ा प्राचीन नगर रहा है और उसका सम्बन्ध नागवंशियों से या जनमेजय से माना जाता है । सम्भवतः महेन्द्र और नाग के समय में आंशिक विघटन भी हुआ हो । गुहिल की मुख्य शाखा से कल्याणपुर के गुहिलवंशियों का अलग होना इसी काल के आस-पास प्रतीत होता है । उन्होंने इसी समय अपनी स्थानीय स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इस धारणा की पुष्टि कल्याणपुर के प्राचीन दानपत्रों से होती है ।
• शिलादित्य •
भील फिर भी अपनी विजय को दीर्घकाल तक न भोग सके, क्योंकि नाग के उत्तराधिकारी शिलादित्य ने नागदा के आस-पास की भूमि शीघ्र ही भीलों से छीन ली । शील की विजय और प्रतिभा की सुविस्तृत तालिका सामोली के वि. सं. 703 (646 ई.) के अभिलेख में उपलब्ध हैं । उसमें लिखा है कि शील शत्रुओं को जीतने वाला, गुरुजनों, ब्राह्मणों और अपने कुल को आनन्द देने वाला था । वह अपने वंश के लिए चन्द्र-तुल्य था । इस वर्णन से स्पष्ट है कि उसने अपने शत्रुओं को परास्त कर तथा भीलों को दबा कर गुहिल, बापा और भोज की भाँति फिर से अपने नाम के तांबे के सिक्के चलाकर अपनी राजनीतिक स्थिति की स्थिरता का परिचय दिया । इस प्रकार की स्थिरता और सुव्यवस्था से प्रभावित होकर वटनगर के कई वणिक समुदाय, जिनका मुखिया जेजक था, दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड़ में आकर बसे । जेजक ने आरण्यक गिरि में लोगों के जीवन-रूपी खनिज का साधन उपस्थित किया । ये खनिज का संकेत 'जावर माइन्स' से है जो मेवाड़ के लिए समृद्धि का बड़ा साधन बना रहा है । उसी भाग में अरण्यवासिनी देवी के मन्दिर का उल्लेख शिलादित्य के काल की धर्म-परायणता प्रकट करता है ।
• अपराजित •
शिलादित्य द्वारा स्थापित गुहिलों की प्रतिष्ठा अपराजित ने परिवर्द्धित की जैसा कि नागदे के कण्डेश्वर के वि. सं. 718 (661 ई.) के लेख से प्रमाणित होता है । उसके सम्बन्ध में उक्त लेख से हमें यह सूचना मिलती है कि अपराजित ने अपने शत्रुओं का नाश किया जो राजा उससे विमुख हो गये थे या जो पहले से ही विरुद्ध थे उनका दमन किया । ऐसा प्रतीत होता
है कि उसने अपनी सैनिक-शक्ति को खूब बढाया । उसने महाराज वरसिंह को अपना सेनापति बनाया । इसी सेनापति की स्त्री अरुन्धति ने विष्णु मन्दिर के निर्माण द्वारा अपने वित्त का उचित उपयोग किया । इस प्रशस्ति में दामोदर नामी लेखक और यशोभट नामी उत्कीर्णक का उल्लेख संस्कृत के प्रचार और कलात्मक उन्न्ति पर प्रकाश डालते हैं । शील के द्वारा स्थापित शौर्य परम्परा के परिवर्द्धन के साथ अपराजित ने सैनिक व्यवस्था में कुशलता तथा विद्यानुराग का परिचय दिया था ।
• कालभोज •
अपराजित के बाद उसका पौत्र कालभोज (महेन्द्रसिंह द्वितीय का पुत्र) मेवाड़ का शासक हुआ । क्योंकि उसके तथा अपराजित के समय के बीच में उसके पिता महेन्द्र का शासन रहा । था अतः उसका समय 7वीं शताब्दी के अन्त या आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रखा जा सकता है । उसके सम्बन्ध में 1285 ई. के आबू के लेख में वर्णन है कि उसने कर्नाटक के स्वामी को दण्ड दिया और चौड की स्त्रियों के सौभाग्य को समाप्त किया । इस उल्लेख की सहायता इतनी ही हो सकती है कि कालभोज ने कन्नौज के यशोवर्मन को उसके दक्षिण के अभियान में सहायता पहुँचायी हो या वह स्वयं विनयादित्य के विरुद्ध लड़ा हो, जिसके बारे में बताया गया है कि उसने उत्तरी भारत की ओर सैनिक अभियान का दावा किया था । उसकी सैनिक योग्यता का परिचय नागदे के लेख से प्रमाणित है । आटपुर के लेख में कालभोज को सूर्य समान तेजस्वी और आबू लेख में अपने वंश की शाखा में मुकटमणि से सदृश्य बताया है ।
• खुम्माण प्रथम •
कालभोज का पुत्र खुम्माण प्रथम मेवाड़ का शासक हुआ । मेवाड़ के इतिहास में खुम्माण नाम सभी शासकों के साथ प्रशंसात्मक रूप से लगाया जाता था । इस प्रवृत्ति से प्रभावित होकर कर्नल टॉड ने उसके समय में बगदाद के खलीफा अलमायूँ के द्वारा चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन किया है और बताया है कि उसने आक्रमणकारियों को परास्त किया । डाँ . ओझा ने आक्रमण को खुम्माण प्रथम के बजाय खुम्माण द्वितीय के समय माना है । रायचौधरी ने खुम्माण का समय आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मानते हुए बताया है कि जुन्नीद की फौजों ने जो सिन्ध का अरब अधिकारी था मीरामाड,(मरुमाड, जोधपुर और जैसलमेर), मण्डला(मण्डोर), बरवास(बीच), उज्जीन, (उज्जैन), अल मलिवह (मालवा) और जुर्ज (गुर्जर) के भागों पर आक्रमण किया । नवसारी के लेख से भी अरब आक्रमण की ओर संकेत होता है । सम्भव है कि इस आक्रमण के समय खुम्माण ने अरावली श्रेणी में कहीं अपनी सीमा सुरक्षा के सम्बन्ध में ख्याति की हो।
• मेवाड़ का पराभव काल(मत्तट से महायक के राज्यकाल तक) •
खुम्माण प्रथम के बाद मत्तट; भर्तभट्ट, सिंह खुम्माण द्वितीय और महायक, मेवाड के क्रमशः शासक हए । इनका इतिहास विशेषतः अन्धकार में है । इन शासकों का कोई ख्यातिमान वर्णन भी उपलब्ध नहीं होता । ऐसा प्रतीत होता है कि इनके समय में मेवाड़ के शासक दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड के शासक मात्र रह गये थे और उनकी राजधानी नागदा थी । राष्ट्र कूटों की बढती हई शक्ति और परमारों और प्रतिहारों के उदीयमान प्रभाव को रोकने के लिए ये असमर्थ थे । यत्र-तत्र शिलालेखों में उनकी कुछ विजयों का वर्णन है, वह केवल राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों और परमारों के सहायक रूप में रहते हुए है । 815 ई. के डबोक तथा नासन 830 ई . के अभिलेखों से सिद्ध है कि चित्तौड़ और उसके आस-पास के प्रदेश राष्ट्रकूटों के अधीन थे और मेवाड़ के शासक कुछ समय उनके सामन्तों की हैसियत से रहे ।• मेवाड़ का पुन : शक्ति-संगठन •
परन्तु खुम्माण तृतीय (877 - 926 ई.) ने मेवाड़ को इस स्थिति से उभारा । 1247 ई. के चित्तौड़ अभिलेख में खुम्माण तृतीय को उसके अधीन राजाओं का मुकटमणि और उनसे प्रक्षालित चरण वाला बताया है । 1439 ई. के सादड़ी अभिलेख में उसके द्वारा सुवर्ण तलादान का उल्लेख है जो उसकी समृद्धि का द्योतक है । कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में भी उसे अंगों, कलिंगों, सौराष्टों, तेलंगों, द्रविडों और गौड़ों का विजेता कहा गया है । हो सकता है कि यह अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हो, परन्तु इससे इतना अवश्य स्पष्ट है कि उसने अपने राज्य-विस्तार के लिए प्रयत्न किया और मेवाड़ के अधिकांश भागों को पुनः अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया ।
• भर्तृभट्ट द्वितीय •
खुम्माण के पुत्र भर्तृभट्ट द्वितीय को 977 ई. के आटपुर लेख में तीनों लोकों का तिलक बताया है । उसी लेख में अंकित है कि उसने राष्ट्रकूट वंश की राणी महालक्ष्मी से विवाह किया । 942 ई. से प्रतापगढ़ के अभिलेख में उसे महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया है । कृष्ण तृतीय के वर्णन से उसका चित्रकूट लेना प्रमाणित होता है । प्रतापगढ़ के लेख से हमें सचना मिलती है कि भर्तभट्ट द्वितीय ने धोटार्सी गाँव में (प्रतापगढ़ से 7 मील पूर्व में) इन्द्रराजादित्यदेव नामक राजा ने सूर्य-मन्दिर को पलास कूपिका (परासिया मन्दसौर से 15 मील दक्षिण में) गाँव में बम्बूलिका खेत भेंट किया । 943 ई. के आहड के एक खण्डित लेख में उसके समय में आदिवराह पुरुष के द्वारा गंगोद्भव तीर्थ में आदिवराह के मन्दिर निर्माण का उल्लेख है । भर्तृभट्ट का देहांत 943 और 951 ई. के बीच किसी समय हुआ ।
• अल्लट •
भर्तृभट्ट का पुत्र अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुराव कहा है, 10वीं शताब्दी के मध्य भाग के आस-पास मेवाड़ का स्वामी बना । उसके पिता तथा प्रपितामह के कार्यों से उसको अपने समय का शक्तिसम्पन्न तथा सफल शासक बनाने में बड़ी सहायता मिली । उस समय का राजनीतिक परिस्थिति से भी उसने लाभ उठाया हो ऐसा प्रतीत होता है । राष्टकट कई स्थाना पर प्रतिहारों को परास्त कर रहे थे । सिंहराज चौहान तथा धंग चन्देल भी प्रतिहारों में स्वतन्त्र होने में सफल थे । अल्लट ने भी बहुत सम्भव है, जैसा कि आहड के एक जैन मन्दिर का देव कुलिका के उपने की शक्तिकुमार के समय की प्रशस्ति से स्पष्ट है, अपने प्रबल शत्रु देवपाल परमार को परास्त किया । इस प्रकार की अल्लट द्वारा परमारों की पराजय में राष्ट्रकूटों की सहायता का भी बहुत बड़ा हाथ रहा हो, क्योंकि उसकी माता, जैसा कि कार वर्णित किया गया है, राष्ट्रकूटों की कन्या थी । इसी तरह हूण भी उसकी इस विजय में सहयोगी रहे हों, क्योकि हूण-परमार संघर्ष से ऐसी मैत्री होना स्वाभाविक था । इस मैत्री का सक्रिय रूप हम । अल्लट का विवाह हूण कन्या हरियादेवी में देखते हैं ।
अल्लट एक सम्पन्न और सफल शासक था जो अल्लट के 953 ई. के शिलालेख से प्रमाणित होता है । इस शिलालेख में उसके समय में आहड के वराह मन्दिर की स्थापना तथा उसके प्रबन्ध के लिए गोष्टिका निर्माण तथा मन्दिर की व्यवस्था के लिए स्थानीय करों का लगाया जाना उल्लेखित है, जो उस समय की सम्पन्न व्यवस्था का द्योतक है । उक्त लेख से शासकीय व्यवस्था का भी बोध होता है जिसमें मुख्यमन्त्री, संधिविग्रहिक, अक्षपटलिक, वंदिपदि, भिषगाधिराज के नाम अंकित हैं । इस लेख मे यह भी ज्ञात होता है कि उसके समय में मेवाड़ व्यापारिक केन्द्र भी बन गया था, जहाँ कर्नाटक, मध्य प्रदेश, लाट, टक्कदेश (पंजाब का एक भाग), आदि से व्यापारी आया-जाया करते थे । वैसे तो आहड 2000 ई. पू. के समय से ही अच्छा कस्बा था, परन्तु अल्लट ने इसके महत्त्व को अपने राज्यकाल की सम्पन्नता से अधिक बढ़ा दिया । सी कारण आघाट के संस्थापकों में उसकी गणना की जाती है
• नरवाहन •
नरवाहन अल्लट की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक बना । इसने भी अपने पुर्वजों की भाँति मेवाड़ राज्य को सुदृढ़ बनाये रखा । चौहानों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित रखने के लिए उसने चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया । शक्तिकुमार के समय के आहड के । 977 ई. के शिलालेख से मालूम होता है कि नरवाहन एक पराक्रमी और योग्य शासक था । प्रशस्तिकार ने उसके सम्बन्ध में लिखा है कि वह कलाप्रेमी, धीर, विजय का निवास स्थान और क्षत्रियों का क्षेत्र, शत्रुहन्ता, वैभव का निधि और विद्या की वेदी था । उसने अपने पिता के समय से चलने वाले शासन-प्रबन्ध को सम्भवतः यथाविधि बनाये रखा । उसके समय के एक शिलालेख से, जो आहड के देवकुलिका के छवते में लगा हुआ है, प्रतीत होता है कि शासक-वर्ग का पद पैतृक था । अल्लट के समय के अक्षपटलाधीश मयूर के पुत्र श्रीपति को करवाहन ने अक्षपटलाधीश नियत किया । नार्थों के मन्दिर के शिलालेख में (971 ई.) नरवाहन को शिव का उपासक कहा है
• मेवाड़ का ह्रास - काल (997 - 1174) •
नरवाहन के पीछे मेवाड की शक्ति का ह्रास आरम्भ होता है । शालिवाहन के समय में कई गुहिलवंशीय सोलंकियों की सेवा में जाकर रहे जो मेवाड़ के गुहिलों की शक्ति-क्षीणता प्रमाण है । इस दौर्बल्य का परिणाम यह हुआ कि शक्तिकुमार के समय में, जैसा कि सिद्ध अस्तिकुण्डों के शिलालेख (997 ई.) से स्पष्ट है कि मुंज ने आघाट को तोड़ा और प्रसिद्ध चित्तौड़ दुर्ग और उसके आस-पास के प्रदेश पर भी अधिकार स्थापित करने में सफल रहा । मुंज के उत्तराधिकारी और छोटे भाई सिंधुराज के पुत्र भोज ने चित्तौड़ में रहते हुए त्रिभुवन नारायण के मन्दिर का निर्माण कराया जो मोकलजी के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के अनुसार नागदे के भोजसर का निर्माण भोज के द्वारा हुआ था और 1022 ई. में उसके द्वारा नागदे में भूमिदान दिया गया था ।
ऐसा प्रतीत होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम-अर्द्ध अवधि तक मेवाड़ का कुछ भाग चित्तौड़ भी सम्मिलित था, परमारों के अधीन बना रहा । फिर ऐसा प्रतीत होता है कि परमारों से चालुक्य सिद्धराज ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया जो उसके पीछे उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के अधीन रहा ।
शक्तिकुमार के बाद अम्बा प्रसाद भी निर्बल शासक था जो चौहान राजा वाक्पतिराज के द्वारा परास्त किया गया और युद्ध में मारा गया । इसके बाद लगभग 10 शासक ऐसे हुए जो इतने प्रतिभासम्पन्न नहीं थे जो खोई हुई मेवाड़ की शक्ति को पुनः स्थापित कर सकें । इस समय की वंशावली भी अशुद्ध-सी है । कुछ निश्चित आधार पर इनकी नामावली में शचिवर्म, नरवर्म, कीर्तिवर्म, योगराज, वैरेट, हंसपाल, वैरिसिंह, विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह, विक्रमसिंह, आदि हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से हंसपाल ने (भैराघाट प्रशस्ति 1155 ई.) अपने निज शौर्य से शत्रुओं के समुदाय को अपने आगे झुकाया और वैरिसिंह ने परमारों से आहड लेकर उसके चारों ओर शहरपनाह और दरवाजे बनाकर अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया । वैरिसिंह के उत्तराधिकारी विजयसिंह के पालडी और कदमाल के भूमिदान से संकेत मिलता है । कि गहिलों का आहड के आस-पास के भागों पर पुनः अधिकार हो गया था । मालवा के उदयादित्य की लड़की से उसने विवाह कर तथा अपनी लड़की अल्हणदेवी का विवाह कलचूरी के शासक के साथ कर उसने अपनी शक्ति को संगठित किया और अपने समर्थकों की संख्या को बढ़ाया ।
विजयसिंह के पीछे अरिसिंह, चोडसिंह और विक्रमसिंह हुए जिनके विषय में हमें बहुत कम जानकारी है । विक्रमसिंह के पीछे उसका पुत्र रणसिंह मेवाड़ का शासक हुआ जिससे रावल और राणा शाखाएँ फटीं । रावल शाखा वाले मेवाड़ के शासक रहे जिनका अन्त अलाउद्दीन की चित्तौड़ विजय से हुआ और तब तक राणा शाखा वाले, जो सीसोदे के जागीरदार थे मेवाड़ के शासक बनते गये । रणसिंह ने, जिसे कर्णसिंह भी कहते हैं, आहोर के पर्वत पर किला बनवाया । उसके बाद क्षेमसिंह मेवाड़ का शासक बना जिसके सामन्तसिंह और कुमरसिंह दो लड़के थे । सामन्तसिंह ने 1174 ई. के आस-पास गुजरात के शासक, सम्भवतः अजयपाल से यद्ध किया और मेवाड़ का बहुत-सा भाग अपने अधिकार में कर लिया परन्तु सामन्तसिंह अपने पैतक राज्य को अधिक समय अपने अधिकार में नहीं रख सका । चौहान कीतू ने उसे मेवाड़ से निकाल दिया, तब उसे 1178 ई. के लगभग वागड में जाकर अपना नया राज्य स्थापित करना पड़ा । वटपद्रक (बड़ोंदा) उसके राज्य की राजधानी थी । 1285 ई. के समरसिंह के लेख से प्रमाणित होता है कि उसने मेवाड़ के सामन्तों की जागीरें छीन ली थीं । सम्भवतः सामन्तों को अप्रसन्न करने के कारण वह उनसे कोई सहायता प्राप्त नहीं कर सका हो और उसे अपने पैतृक राज्य से हाथ धोना पड़ा हो । सामन्तसिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की बहन पृथ्वीबाई से होना पाया जाता है । कीतू और पृथ्वीराज द्वितीय में अनबन रही जिससे सामन्तसिंह को कीतू के कोप का भाजन बनना पड़ा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
सामन्तसिंह के भाई मथनसिंह ने फिर से अपने वंश-परम्परागत राज्य को चौहान कीतू से छीना और अपने अधिकार में किया । उसके उत्तराधिकारी मथनसिंह और पद्मसिंह ने फिर से मेवाड़ की व्यवस्था स्थापित की उसने टांटेड जाति के उद्धरण को, जो दुष्टों को शिक्षा देने और शिष्टों का रक्षण करने में कुशल था, नागदा नगर का तलारक्ष नियुक्त किया । मथनसिंह के उत्तराधिकारी पद्मसिंह ने भी इसी उद्धरण के बड़े पुत्र योगराज को नागदा का तलारक्ष बनाया । इस प्रकार गुहिलों ने 13वीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथलपुथल होने पर भी, अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा । कभी उनके हाथ से चित्तौड़, कभी आहड और कभी नागदा भी निकलते रहे, परन्तु फिर भी उन्होंने हिम्मत न हारी और धीरे-धीरे एक-एक भाग को वे अपने अधीन करते रहे । ऐसी स्थिति बनने में सोलंकियों, परमारों और चौहानों की निर्बलता भी एक बहुत बड़ा कारण थी । केवल चित्तौड़ इनके अधिकर में पूरी तौर से न आ सका जिसको विजय करने का श्रेय पद्मसिंह के पुत्र जैत्रसिंह को है जिसका वर्णन हम यथास्थान करेंगे ।