Sunday, April 5, 2020

गुहिलों का अभ्युदय (7वीं शताब्दी से 12वीं शताब्दी तक )

                     • गुहिलवंश की प्राचीनता •
हूण राजा मिहिरकुल के पीछे जिन राजपूत वंशों ने राजस्थान में अपने राज्य स्थापित किये उनमें गहिलवंशीय राजपूत मुख्य है । इस वंश में सर्वप्रथम गुहिल के प्रतापी होने के कारण इस वंश के राजपूत जहाँ-जहाँ आकर बसे उन्होंने अपने को गहिलवंशीय कहा ।
संस्कृत लेखों में इस वंश के लिए 'गुहिल', 'गुहिलपुत्र', 'गोभिलपत्र', 'गुहिलोत' और 'गौहिल्य' शब्दों का प्रयोग किया गया है । भाषा में इन्हें 'गहिल', 'गोहिल', 'गहलोत' और 'गेहलोत' कहते हैं । भाषा का 'गोहिल' रूप संस्कृत के 'गोभिल' और 'गौहिल्य' से बना है ।
                      • गुहिलों की उत्पत्ति
 गुहिलों के आदि निवास-स्थान तथा उत्पत्ति के विषय में कई भान्तियाँ प्रचलित हैं । अबुल फजल ने सरकार अजमेर के प्रसंग में मेवाड़ के गुहिलों को ईरान के बादशाह नौशेरवां आदिल की सन्तान होना लिखा है । इसी आधार  पर 'मासिरुलउमरा' तथा 'बिसातुल गनाइम' के कर्ताओं ने मेवाड़ के गुहिलों को नौशेरवां के वंशज मानकर यह लिखा है कि जब नौशेरवां जीवित था तो उसके पुत्र नौशेजाद ने, जिसकी माता रूम के कैसर की पुत्री थी, अपना प्राचीन धर्म छोड़कर ईसाई धर्म स्वीकार किया और वह बड़ी सेना के साथ हिन्दुस्तान में आया । यहाँ वह फिर अपने पिता के साथ लड़ने को ईरान पर चढ़ा और वहाँ मारा गया । उसकी सन्तान हिन्दुस्तान में ही रही । उसी के वंश में गुहिल हैं ।
कर्नल टॉड ने राजपूतों को विदेशियों की सन्तान मानने के पक्ष की पुष्टि में फारसी तवारीखों के वर्णन को ठीक माना और जैन ग्रन्थों के आधार पर यह धारणा बनायी कि वल्लभी के शासक शिलादित्य के समय जो कनकसेन (144 ई.) के पीछे हुआ था, विदेशियों ने वल्लभी पर 524 ई. के आक्रमण पर उसे नष्ट कर दिया । उस समय शिलादित्य की राणी पुष्पावती ही, जो अम्बा भवानी की यात्रा के लिए गयी हुई थी, बच पायी । उसी ने गोह (गुहदत्त) को जन्म दिया जो आगे चलकर मेवाड़ का स्वामी बना । स्मिथ ने भी गुहिलों को विदेशी होना बताया है ।    वीर विनोद के लेखक कविराज श्यामलदास ने यह तो स्वीकार कर लिया कि गुहिलवंश वल्लभी से मेवाड में आया, परन्तु उन्होंने शिलादित्य के समय में वल्लभी पतन की टॉड की दलील से मतभेद प्रकट करते हुए यह लिखा है कि उस समय वल्लभी में कोई दूसरा राजा होगा जिसके मारे जाने के बाद उक्त खानदान की बड़ी शाखा (जिसमें गुहिलों और बापा हुए) मेवाड़ के अर्वली पहाड़ में आकर छपी । वल्लभी की गुहिल शाखा को मान्यता देने के साथ कविराज ने इसको क्षत्रियों की 36 शाखा के अन्तर्गत बताया है ।

डाॅ. ओझा ने कर्नल टॉड की इन सभी धारणाओं को कपोल-कल्पित बताया है, क्योंकि ई. सं. 144 में सौराष्ट्र का स्वामी कनकसेन नहीं, किन्तु क्षत्रप वंशीय राजा रुद्रदामा था । इसी तरह उनका कहना है कि कनकसेन के पाँचवीं पीढ़ी में विजयसेन का होना तथा नौशेजाद के हिन्दुस्तान में आने की मान्यता प्रमाणशून्य हैं । वह तो बगावत करने पर ईरान में ही मारा गया था, ऐसी स्थिति में भारतवर्ष में उसका आना निराधार है । इन आधारों से डाॅ. ओझा टॉड का मत अस्वीकार करते हुए यह लिखते हैं कि यदि वल्लभी का पतन टॉड के अनुसार 524 ई. में माना जाय तो शिलादित्य का यवनों के विरुद्ध युद्ध में मारा जाना, राणी पुष्पावती का मेवाड में आना और गुहा का वहाँ जन्म होना तिथिक्रम से असंगत है । यह तो प्रमाणित है कि नौशेरवां ईरान के तख्त पर 531 ई. में बैठा था तो फिर टॉड द्वारा दी गयी उपर्युक्त घटनाएँ 524 ई. में कैसे हो सकती हैं । ऐसी स्थिति में नौशेजाद या माहवान् के वंश में न तो वल्लभी के राजा ही हो सकते हैं और न गुहिल का इस वंश का होना ही सिद्ध होता है । इन दलीलों से डाॅ. ओझा गहिलों को विदेशियों से उत्पन्न नहीं मानते । वे तो यह विश्वास करते हैं कि गुहिलवंशीय राजपूत विशुद्ध सूर्यवंशीय है। अपने मत की पुष्टि में वे लिखते हैं कि बापा के सिक्के पर सूर्य का चिह इस मत का बहुत बड़ा प्रमाण है । वे यह भी लिखते हैं वि. सं. 1028 के शिलालख में गुहिलवंशीय राजाओं को रघुवंश की कीर्ति फैलाने वाले इसीलिए लिखा है कि वे सूर्यवंशीय क्षत्रिय हैं । इसी तरह वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के शिलालेख में उनको 'क्षत्रियों का उत्पत्ति-स्थान' बताना, वि. सं. 1342 के समरसिंह के लेख में उनको 'मूर्तिमान क्षात्रधर्म' कहना , वि . सं . 1485 के लेख में उनके लिए 'क्षत्रियवंश मण्डनमणि' शब्द का प्रयोग करना, वि. सं. 1557 के रायमल के लेख में उनको 'सूर्यवंशीय क्षत्रीय' लिखना आदि प्रमाण उदयपुर के राजवंश का सूर्यवंश होना सूचित करते हैं ।
 श्रीयुत् देवदत्त रामकृष्ण भण्डारकर ने बंगाल एशियाटिक सोसायटी के जनरल में एक लेख प्रकाशित कर यह बताने का प्रयत्ल किया है कि मेवाड़ के राजा ब्राह्मण(नागर) हैं । अपने मत की पष्टि में उन्होंने कई प्रमाण दिये हैं । वे लिखते हैं कि वि. सं. 1034 के आहड से प्राप्त एक लेख में गहिल को आनन्दपुर से निकले हुए ब्राह्मणों के कुल को आनन्द देने वाला लिखा है।है । इसी तरह रावल समरसिंह के वि. स. 1331 को प्रशस्ति में बापा के लिए 'विप्न' शब्द का । प्रयोग किया गया है । वि. सं. 1517 की कुम्भलगढ़ प्रशस्ति तथा एकलिंगमहास्य में राणा को आनन्दपुर से निकले हए ब्राह्मण वंश को आनन्द देने वाला कहा गया है । नैणसी ने भी इन्हें । आदि रूप से बाह्मण तथा जानकारी से क्षत्रिय बताया है । इसी तरह कई स्थानों में 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द का प्रयोग इनके लिए किया जाना भी भण्डारकर इन्हें ब्राह्मण मानने का प्रमाण मानते हैं ।
 डॉ. ओझा ने इन सभी दलीलों को अस्वीकार किया है और जिन प्रशस्तियों से गुहिलों को ब्राह्मण वंश से उत्पन्न प्रमाणित किया गया है उन्हीं शिलालेखों में गुहिलों को क्षत्रिय सम्बोधित किया जाना बताकर उन्होंने ब्राह्मण वंश से उत्पन्न बताने वाले मत का विरोध किया है । 'ब्रह्मक्षत्र' शब्द के सम्बन्ध में डाॅ . ओझा मानते हैं कि इस शब्द का यही अभिप्राय है कि 'ब्राह्मण और क्षत्रिय गुणयुक्त' दोनों गुण जिसमें हों । उनकी यह भी मान्यता है कि 'विप्र' शब्द का प्रयोग, जो चित्तौड़ की 1331 वि. सं. की प्रशस्ति में किया गया है, वह बापा के पूर्वजों का । ब्राह्मण धर्मपालन का द्योतक है, न कि उसके ब्राह्मण कुल से पैदा होने का ।
मुझे भी कुछ समय पूर्व कुम्भलगढ़ प्रशस्ति की द्वितीय पट्टिका का खोया हुआ पूरा पद्यांश प्राप्त हुआ जिसको मैंने बिहार रिसर्च सोसायटी जनरल में सम्पादित किया । इसके सम्पादन से में इस नतीजे पर पहुँचा कि गुहिलवंशीय शासक ब्राह्मणवंशीय थे, क्योंकि महाराजा कुम्भा ने बड़ी छानबीन के बाद अपने वंश के सम्बन्ध में स्पष्ट रूप से ब्राह्मणवंशीय होना अंकित करवाया था । अभाग्यवश इस पट्टिका को पीछे से नष्ट करवा दिया गया, परन्तु इसका सभी पद्यांश ' प्रशस्ति ' संग्रह में सुरक्षित बना रहा जिससे इस वंश के ब्राह्मणवंश से माने जाने में 15वीं शताब्दी तक कोई सन्देह नहीं रह जाता । वैसे भी यह बात स्पष्ट है कि प्राचीन भारतीय शासक वंशों में कण्व, शुंग आदि वंश ब्राह्मणवंशीय थे, जिन्होंने अपने प्रताप से प्रतिष्ठित शासकों में स्थान प्राप्त कर लिया था । यदि ये वंश ब्राह्मणवंशीय थे तो नागदा के गुहिलों का ब्राह्मणवंशीय होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है । बापा को हारीत द्वारा, जो ब्राह्मण थे, राज्य प्राप्त होने की कथा भी बापा का ब्राह्मण वंश से होना प्रमाणित करता है । नैणसी द्वारा लिखित कथा, जिसमें विजयादित्य का बापा का पोषण करना और उसकी 10 पीढ़ी तक राजाओं का ब्राह्मण धर्म के आचार का परिपालन करना आदि इन्हें ब्राह्मणवंशीय प्रमाणित करती है । इससे भी एक बडे महत्त्व की बात है कि 12वीं शताब्दी के पहले किसी लेख में स्पष्ट रूप से गुहिलों को सूर्यवंशीय नहीं लिखा है । सूर्यवंशी या क्षत्रिय लिखने की परिपाटी चित्तौड़ के 1278 के लेख के आस-पास अपनायी गयी प्रतीत होती है । आगे चलकर 28वीं शताब्दी में इस प्रकार के प्रचलन ने बल पकड़ लिया । 977 ई. के आटपुर लेख में काल भोज को 'अर्कसम' अर्थात 'सूर्य की भाँति' लिखा है न कि सूर्यवंशीय । यह तो निर्विवाद है कि 7वीं शताब्दी से 17वीं शताब्दी तक भी गुहिलवंशीय अपने आपको ब्राह्मणवंशीय मानते रहे और इसीलिए इनके लिए प्रशिस्तकार 'विप्र', 'विप्रकुल' आदि शब्दों का स्वतन्त्रता से प्रयोग करते रहे । इसी प्रकार 'ब्रह्माक्षत्र' शब्द का प्रयोग प्रशिस्तकार इसीलिए करते रहे कि इन्होंने ब्राह्मण होते हुए क्षत्रियोचित काम से अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया था । फिर भी इस दिशा में अधिक खोज अपेक्षित है । इस
सम्पूर्ण विवाद को समाप्त करने के लिए एक तो सामग्री का अभाव है और दूसरा इस प्रश्न को ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से निर्णय करने के बजाय भावुकता से निर्णय करने का दृष्टिकोण बनता जा रहा है, जिससे खोज की वृत्ति गौण बनती जा रही है ।

             • गुहिलों का राजस्थान में विस्तार •
ऐसा अनुमानित होता है कि प्रारम्भ में गुहिल मेवाड़ में शक्तिशाली बने और तदनन्तर इसी वंश के अन्य प्रतिभाशाली व्यक्ति राजस्थान के तथा अन्य भागों में जाकर बस गये । क्योंकि गुहिल इनमें सबसे अधिक प्रभावशाली था, इसके वंशज जहाँ-जहाँ जाकर बसे और जहाँ-जहाँ उन्होंने अपने राज्य स्थापित किये, उन्होंने अपने आपको गुहिलवंशीय ही माना । उन्होंने अपने-अपने वंशक्रम को भी गुहिल से ही आरम्भ किया । 7वीं शताब्दी से लेकर 15वीं शताब्दी तक मिलने वाले शिलालेखों और ताम्रपत्रों से इन विभिन्न शाखाओं के विषय में हमें जानकारी प्राप्त होती है । रावल समरसिंह के समय वि. सं. 1331 (ई. सं. 1274) की चित्तौड़ की प्रशस्ति से गुहिलवंश की अनेक शाखाओं के होने का बोध होता है । मुँहणोत नैणसी ने अपनी ख्यात में गुहिलों की 24 शाखाओं का जिक्र किया है । कर्नल टॉड ने भी उनके गुरु ज्ञानचन्द्र के माण्डल के उपासरे के संग्रहालय के आधार पर गुहिलों की 24 शाखाओं को माना है जिनकी नामावली में नैणसी की नामावली से यत्र-तत्र विभिन्नता है । इनमें कल्याणपुर के गहिल, वागड़ के गुहिल, चाटसू के गुहिल, मारवाड़ के गुहिल, धोड़ के गुहिल, काठियावाड़ के गुहिल, मेवाड़ के गुहिल, आदि अधिक प्रसिद्ध हैं ।
                        • कल्याणपुर के गुहिल
 कल्याणपुर से प्राप्त 7वीं शताब्दी के ताम्रपत्रों से प्रमाणित होता है कि गुहिलवंशीय राजा पद्र ने एक शिवालय का निर्माण कराया और उसी शाखा में देव गण, भाविहित, भेति आदि
कई शासक हुए ।

                          • चाटसू के गुहिल
चाटसू और नागर, जो जयपुर जिले में हैं, पूर्व मध्यकालीन काल में गुहिलवंशीय शाखा के अधिकार में थे । इस शाखा का संस्थापक भर्तृभट्ट था जिसमें ब्राह्मण तथा क्षत्रियोचित गुणों का समावेश था । इसी वंश में ईशान, भट्ट, उपेन्द्रभट्ट और गुहिल हए जिनमें से एक बड़ा विद्वान था । गुहिल का पुत्र बड़ा धर्मात्मा था जिसने नगर में शिव के अभिषेक के लिए तथा धर्म प्राप्ति के लिए एक बावली का निर्माण करवाया था । धनिक के बाद इस वंश के कई प्रतापी शासक हुए जिनमें आहुक, कृष्णराज, शंकरगण, नागभट्ट द्वितीय, हर्ष आदि मुख्य हैं । शंकरगण के सम्बन्ध में चाटसू लेख से ज्ञात होता है कि उसने गौड़ों को परास्त कर अपना राज्य मध्य प्रदेश तक प्रसारित किया । इसने महामहीमृत की कन्या यज्ञा से विवाह किया और अपनी प्रतिष्ठा को बढ़ाया । इसका लड़का हर्ष और हर्ष का पुत्र भोज प्रथम भी बड़े शक्तिशाली, शासक थे जिन्होंने सम्भवत : अरबों को पीछे धकेलने में सफलता प्राप्त की थी । इसी तरह इसी शाखा के गुहिल द्वितीय, भट्ट, बालादित्य आदि शासक हुए थे जिन्होंने प्रतिहारों को उनके शत्रुओं को परास्त करने में सहयोग दिया था और पीछे से सम्भवतः इस शाखा के शासकों ने चौहानों की अधीनता स्वीकार कर ली । ऐसे ही अजमेर जिले के नासूण गाँव से मिले हुए वि. सं. 887 (ई. सं. 830 ) के शिलालेख से यह भी अनुमान होता है कि चाटसू के गुहिलवंशियों की एक शाखा का अधिकार उस समय अजमेर के आस-पास के प्रदेश पर भी रहा था ।
                       • मालवा के गुहिल
जैसा कि हमने ऊपर पढा है, भर्तभट्ट गुहिलवंशीय राजाओं का अधिकार प्रारम्भ में चाटसू के आस-पास था, वे कालान्तर में मालवा की ओर आकर बस गये । धार के पास इंगोदा के वि. सं. 1190 (ई. सं. 1133) के दानपत्र से भर्तृभट्ट के वंशज पृथ्वीपाल, तिहूणपाल और विजयपाल के नाम उपलब्ध होते हैं । सम्भवतः परमारों और सोलंकियों के संघर्ष से लाभ उठाकर इन राजाओं ने मालवा क्षेत्र के कुछ भागों पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया हो और जब कुमारपाल ने परमार बल्लाल को वि. सं. 1208 (ई. सं. 1151) में परास्त कर फिर मालवा पर अपना अधिकार स्थापित कर दिया तब यहाँ की गुहिल शाखा के शासक कुमारपाल मालवा के सामन्त बन गये । इस वंश के शासकों में पृथ्वीपाल, तिहूणपाल, विजयपाल, सूरजपाल, अमृतपाल, सोमेश्वर तथा विजयपाल विशेष उल्लेखनीय हैं ।
                         • वागड के गुहिल
 ऐसा प्रतीत होता है कि मालवा के विजयपाल ने (1199 वि. - 1133 ई.) कुमारपाल के सामन्त रहते हुए वागड के कुछ भाग पर अधिकार स्थापित कर लिया । इसके पश्चात् इसका पुत्र सुरजपाल वहां का शासक रहा, परन्तु जब वि. सं. 1228 (ई. सं. 1171) के आस-पास सामन्तसिंह कीतु सोनगरा के द्वारा मेवाड़ से निकाला गया तो उसने ई. सं. 1181 के आस-पास सूरजपाल के पुत्र अनंगपाल या उसके भाई अमृतपाल के वागड का राज्य छीन लिया और वह वहां का स्वतन्त्र शासक बन गया परन्तु वि. स. 1242 (ई. सं. 1185) के ताम्रपत्र से मालूम होता है कि सामन्तसिंह से गुजरात के शासक ने वागड का राज्य छीनकर फिर से अमृतलाल के सुपुर्द किया । कुछ समय तक वागड गुजरात के अधीन इस शाखा के द्वारा बना रहा, परन्तु कुछ लेखों से प्रमाणित होता है कि मेवाड़ के गुहिलवंशीय जयसिंह और तत्पश्चात् सीहड ने 12वीं सदी के मध्य में वागड पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया । क्योंकि ये गुहिल मेवाड़ के आहड से यहाँ आये थे, 'आहडा' कहलाये । डूँगरपुर राज्य की ख्यातें सम्भवतः इसी आधार पर सीहड को डूँगरपुर राज्य का संस्थापक मानती हैं ।

                         • धोड के गुहिल
  धोड जो जहाजपुर के निकट है, पहले गुहिल की एक शाखा के अधीन था जैसा 725 ई. के एक लेख से प्रमाणित है । सम्भवतः धोड के गुहिल धवलप्पदेव के, जो चित्तौड़ का मौर्य शासक था, सामन्त थे ।
               • काठियावाड़ और मारवाड़ के गुहिल
काठियावाड़ के गोहिलों के दो प्राचीन शिलालेखों से (वि. सं. 1202 व वि. सं. 1287) स्पष्ट है कि यह गुहिलों की शाखा सोलंकी राजा सिद्धराज और कुमारपाल की सामन्त थी जो कुछ समय सौराष्ट्र में शासन करती रही । मारवाड़ में गुहिलवंशीय राजपूत बसे थे जिन्हें 14वीं शताब्दी में आस्थान ने पराजित किया ।
                  • मेवाड़ के गुहिलों का उत्थान
 इन सभी शाखाओं में मेवाड़ के गुहिल अधिक प्रसिद्ध हैं जो आनन्दपुर (वडनगर) से आकर यहाँ बस गये, परन्तु यह निश्चित रूप से कहना बड़ा कठिन है कि मेवाड़ के गुहिल, जिनकी प्रसिद्धि सर्वमान्य थी, इन विभिन्न शाखीय गुहिलों से किस प्रकार सम्बन्धित थे । शिलालेखों में जहाँ-जहाँ विभिन्न शाखा के गुहिलों का वर्णन मिलता है उन्हें 'महाराज' या 'राज्य' शब्द से सम्बोधित किया गया है । इन विरुदों से इतना अवश्य स्पष्ट है कि या तो ये स्थानीय शासक-मात्र थे या किसी के सामन्त थे । मालवा तथा काठियावाड़ के गुहिल, उदाहरणार्थ, सोलंकियों के सामन्त थे और धोड के गुहिल मौयों के, परन्तु सभी शाखाओं का सम्बन्ध गुहिल से जोड़ा जाना यह अवश्य संकेत करता है कि इनका मूल पुरुष गुहिल था और जिससे सम्बन्धित चाटसू, नगर (जयपुर जिले में), नासूण (अजमेर जिले में),वागड,मारवाड़ आदि की गुहिल शाखाएँ थीं और इनका राज्य बड़ा विस्तार में था । हूण राजा मिहिरकुल के पीछे राजस्थान के अधिकांश तथा उसके
समीपवर्ती प्रदेशों पर गुहिल का राज्य रहा हो तो कोई आश्चय नहीं । आगरा के पास ई. सं. 1869 में प्राप्त 2000 से अधिक चाँदी के सिक्के तथा 9 ताबे के सिक्के, जो श्री रोशनलाल सांभर के संग्रह में हैं, प्रमाणित करते हैं कि गुहिल एक स्वतन्त्र तथा विस्तृत राज्य का स्वामी था । मिहिरकुल के पीछे गुहिल के ही सिक्के मिलना उसके प्रभाव के द्योतक हैं । वैसे तो गुहिल का ठीक समय ज्ञात नहीं है, पर डाँ. ओझा का सुझाव है कि यदि उसके पाँचवे या छठे वंशधर शिलादित्य का वि.सं. 703 (ई. सं. 646) के साँभोली के लेख से अनुमान लगाया जाय और प्रत्येक शासक का काल औसतन 20 वर्ष मान लिया जाय तो गुहिल का समय वि. सं. 623 (566 ई) के पास स्थिर किया जा सकता है । परन्तु इस तिथि को मानने में यह आपत्ति है कि प्रथम तो शील के पहले यदि बापा को माना जाय, जैसा हम आगे बतायेंगे तो इस औसत से गुहिल का समय और पीछे चला जाता है । इसके अतिरिक्त वि. सं. 741 (684 ई.) के नगर के शिलालेख से जो भर्तृभट्ट वंशीय गुहिलों का पता लगता है तो ऐसा प्रतीत होता है कि 564 ई. के लगभग तो भर्तृभट्ट ही हुआ था । इस लेख से जब भर्तभट्ट वंशीय गुहिल को अपना आदि पुरुष मानते हैं तो गुहिल का समय सहज में पाँचवीं शताब्दी के अन्त तक पहुँच जाता है ।

                    • गुहिल के उत्तराधिकारी
 निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता कि गुहिला के उत्तराधिकारी किस क्रम में थे । कुछ एक समसामयिक शिलालेखों की सहायता से गुहिल के पीछे होने वाले मेवाड़ के कुछ शासकों के नाम और वर्णन पर कुछ प्रकाश पड़ता है , जिनमें शील, अपराजित, भर्तृभट्ट, अल्लट, नरवाहन, शक्तिकमार, विजयसिंह आदि प्रमुख हैं, परन्तु इन शासकों के बीच में होने वाले कतिपय शासकों के नाम पिछले शिलालेखों या भाटों की वंशावलियों से ही लिये जा सकते हैं । इस प्रकार वंश-क्रम की पूर्ति कुछ तो जाँच की कसौटी में ठीक उतरती है और कुछ काल्पनिक ही रह जाती है । उदाहरण के लिए, गुहिल से शील के बीच के शासकों के जो नाम खुम्माण महायक आदि के मिलते हैं वे पिछली पोथियों से लिये गये प्रतीत होते हैं । ऐसी स्थिति में जिन शासकों के कुछ शिलालेख या वर्णन के सामयिक साधन नहीं मिलते उनके विषय में अधिकार से लिखना कठिन है, परन्तु गुहिल के बाद मान्यता प्राप्त शासकों में बापा का नाम उल्लेखनीय है । विद्वानों का मतभेद है कि बापा का मेवाड़ के वंश-क्रम में गुहिल के पीछे कहाँ स्थान रखा, परन्तु बापा का नाम गुहिल की तुलना में भी कभी-कभी बढ़ जाता है तो हम बापा का वर्णन गहिल के पीछे करना उपयुक्त समझेंगे । कोई आश्चर्य नहीं कि बापा गुहिल का उत्तराधिकारी या वंश - क्रम में निकटवर्ती समय का शासक रहा हो ।
                  • गुहिलवंशीय अन्य शासक
नाथों की प्रशस्ति के अनुसार गुहिल के बाद यदि कोई बहुत महत्त्वशाली इस वंश का शासक था तो वह बापा था आटपुर की प्रशस्ति (977 ई.) में गुहिल के अन्य वंशधरों में भोज, महेन्द्र और नाग के नाम क्रमशः मिलते हैं । भोज के
सम्बन्ध में समरसिंह के आबू के शिलालेख (1285 ई.) में वर्णित कि श्रीपति का उपासका था और उसकी धार्मिक प्रवृति श्लाघनीय थी । उसके तांबे के दो सिक्क जो उपलब्ध है । प्रमाणित करते हैं कि उसने गुहिल और बापा की भाँति अपने समय में राजनीतिक व्यवस्था का बनाये रखा परन्त इसके उत्तराधिकारी महेन्द्र तथा नाग इस पैतृक प्रतिष्ठा को बनाये रखने में असमर्थ सिद्ध हुए । मेवाड़ के भीलों ने महेन्द्र से उसके अधिकार की भूमि को छीन लिया और उसकी हत्या कर दी । नाग केवल मात्र नागदा और उसके आस-पास की भूमि को ही अपने अधिकार में रख पाया । नागदा में अधिक समय रहने के कारण आगे चलकर यह मान्यता बन गयी कि नाग ने ही नागद्रह या नागदा बसाया था । वास्तव में प्राचीन जनश्रुति से नागहद या नागदृह (नागदा) बड़ा प्राचीन नगर रहा है और उसका सम्बन्ध नागवंशियों से या जनमेजय से माना जाता है । सम्भवतः महेन्द्र और नाग के समय में आंशिक विघटन भी हुआ हो । गुहिल की मुख्य शाखा से कल्याणपुर के गुहिलवंशियों का अलग होना इसी काल के आस-पास प्रतीत होता है । उन्होंने इसी समय अपनी स्थानीय स्वतन्त्रता प्राप्त कर ली हो तो कोई आश्चर्य नहीं । इस धारणा की पुष्टि कल्याणपुर के प्राचीन दानपत्रों से होती है ।
                             • शिलादित्य
 भील फिर भी अपनी विजय को दीर्घकाल तक न भोग सके, क्योंकि नाग के उत्तराधिकारी शिलादित्य ने नागदा के आस-पास की भूमि शीघ्र ही भीलों से छीन ली । शील की विजय और प्रतिभा की सुविस्तृत तालिका सामोली के वि. सं. 703 (646 ई.) के अभिलेख में उपलब्ध हैं । उसमें लिखा है कि शील शत्रुओं को जीतने वाला, गुरुजनों, ब्राह्मणों और अपने कुल को आनन्द देने वाला था । वह अपने वंश के लिए चन्द्र-तुल्य था । इस वर्णन से स्पष्ट है कि उसने अपने शत्रुओं को परास्त कर तथा भीलों को दबा कर गुहिल, बापा और भोज की भाँति फिर से अपने नाम के तांबे के सिक्के चलाकर अपनी राजनीतिक स्थिति की स्थिरता का परिचय दिया । इस प्रकार की स्थिरता और सुव्यवस्था से प्रभावित होकर वटनगर के कई वणिक समुदाय, जिनका मुखिया जेजक था, दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड़ में आकर बसे । जेजक ने आरण्यक गिरि में लोगों के जीवन-रूपी खनिज का साधन उपस्थित किया । ये खनिज का संकेत 'जावर माइन्स' से है जो मेवाड़ के लिए समृद्धि का बड़ा साधन बना रहा है । उसी भाग में अरण्यवासिनी देवी के मन्दिर का उल्लेख शिलादित्य के काल की धर्म-परायणता प्रकट करता है ।
                             • अपराजित
 शिलादित्य द्वारा स्थापित गुहिलों की प्रतिष्ठा अपराजित ने परिवर्द्धित की जैसा कि नागदे के कण्डेश्वर के वि. सं. 718 (661 ई.) के लेख से प्रमाणित होता है । उसके सम्बन्ध में उक्त लेख से हमें यह सूचना मिलती है कि अपराजित ने अपने शत्रुओं का नाश किया जो राजा उससे विमुख हो गये थे या जो पहले से ही विरुद्ध थे उनका दमन किया । ऐसा प्रतीत होता
है कि उसने अपनी सैनिक-शक्ति को खूब बढाया । उसने महाराज वरसिंह को अपना सेनापति बनाया । इसी सेनापति की स्त्री अरुन्धति ने विष्णु मन्दिर के निर्माण द्वारा अपने वित्त का उचित उपयोग किया । इस प्रशस्ति में दामोदर नामी लेखक और यशोभट नामी उत्कीर्णक का उल्लेख संस्कृत के प्रचार और कलात्मक उन्न्ति पर प्रकाश डालते हैं । शील के द्वारा स्थापित शौर्य परम्परा के परिवर्द्धन के साथ अपराजित ने सैनिक व्यवस्था में कुशलता तथा विद्यानुराग का परिचय दिया था ।
                              • कालभोज
अपराजित के बाद उसका पौत्र कालभोज (महेन्द्रसिंह द्वितीय का पुत्र) मेवाड़ का शासक हुआ । क्योंकि उसके तथा अपराजित के समय के बीच में उसके पिता महेन्द्र का शासन रहा । था अतः उसका समय 7वीं शताब्दी के अन्त या आठवीं शताब्दी के प्रारम्भ में रखा जा सकता है । उसके सम्बन्ध में 1285 ई. के आबू के लेख में वर्णन है कि उसने कर्नाटक के स्वामी को दण्ड दिया और चौड की स्त्रियों के सौभाग्य को समाप्त किया । इस उल्लेख की सहायता इतनी ही हो सकती है कि कालभोज ने कन्नौज के यशोवर्मन को उसके दक्षिण के अभियान में सहायता पहुँचायी हो या वह स्वयं विनयादित्य के विरुद्ध लड़ा हो, जिसके बारे में बताया गया है कि उसने उत्तरी भारत की ओर सैनिक अभियान का दावा किया था । उसकी सैनिक योग्यता का परिचय नागदे के लेख से प्रमाणित है । आटपुर के लेख में कालभोज को सूर्य समान तेजस्वी और आबू लेख में अपने वंश की शाखा में मुकटमणि से सदृश्य बताया है ।
                        • खुम्माण प्रथम
कालभोज का पुत्र खुम्माण प्रथम मेवाड़ का शासक हुआ । मेवाड़ के इतिहास में खुम्माण नाम सभी शासकों के साथ प्रशंसात्मक रूप से लगाया जाता था । इस प्रवृत्ति से प्रभावित होकर कर्नल टॉड ने उसके समय में बगदाद के खलीफा अलमायूँ के द्वारा चित्तौड़ आक्रमण का वर्णन किया है और बताया है कि उसने आक्रमणकारियों को परास्त किया । डाँ . ओझा ने आक्रमण को खुम्माण प्रथम के बजाय खुम्माण द्वितीय के समय माना है । रायचौधरी ने खुम्माण का समय आठवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में मानते हुए बताया है कि जुन्नीद की फौजों ने जो सिन्ध का अरब अधिकारी था मीरामाड,(मरुमाड, जोधपुर और जैसलमेर), मण्डला(मण्डोर), बरवास(बीच), उज्जीन, (उज्जैन), अल मलिवह (मालवा) और जुर्ज (गुर्जर) के भागों पर आक्रमण किया । नवसारी के लेख से भी अरब आक्रमण की ओर संकेत होता है । सम्भव है कि इस आक्रमण के समय खुम्माण ने अरावली श्रेणी में कहीं अपनी सीमा सुरक्षा के सम्बन्ध में ख्याति की हो।

मेवाड़ का पराभव काल(मत्तट से महायक के राज्यकाल तक) •
खुम्माण प्रथम के बाद मत्तट; भर्तभट्ट, सिंह खुम्माण द्वितीय और महायक, मेवाड के क्रमशः शासक हए । इनका इतिहास विशेषतः अन्धकार में है । इन शासकों का कोई ख्यातिमान वर्णन भी उपलब्ध नहीं होता । ऐसा प्रतीत होता है कि इनके समय में मेवाड़ के शासक दक्षिणी-पश्चिमी मेवाड के शासक मात्र रह गये थे और उनकी राजधानी नागदा थी । राष्ट्र कूटों  की बढती हई शक्ति और परमारों और प्रतिहारों के उदीयमान प्रभाव को रोकने के लिए ये असमर्थ थे । यत्र-तत्र शिलालेखों में उनकी कुछ विजयों का वर्णन है, वह केवल राष्ट्रकूटों तथा प्रतिहारों और परमारों के सहायक रूप में रहते हुए है । 815 ई. के डबोक तथा नासन 830 ई . के अभिलेखों से सिद्ध है कि चित्तौड़ और उसके आस-पास के प्रदेश राष्ट्रकूटों के  अधीन थे और मेवाड़ के शासक कुछ समय उनके सामन्तों की हैसियत से रहे ।
              • मेवाड़ का पुन : शक्ति-संगठन
परन्तु खुम्माण तृतीय (877 - 926 ई.) ने मेवाड़ को इस स्थिति से उभारा । 1247 ई. के चित्तौड़ अभिलेख में खुम्माण तृतीय को उसके अधीन राजाओं का मुकटमणि और उनसे प्रक्षालित चरण वाला बताया है । 1439 ई. के सादड़ी अभिलेख में उसके द्वारा सुवर्ण तलादान का उल्लेख है जो उसकी समृद्धि का द्योतक है । कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में भी उसे अंगों, कलिंगों, सौराष्टों, तेलंगों, द्रविडों और गौड़ों का विजेता कहा गया है । हो सकता है कि यह अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णन हो, परन्तु इससे इतना अवश्य स्पष्ट है कि उसने अपने राज्य-विस्तार के लिए प्रयत्न किया और मेवाड़ के अधिकांश भागों को पुनः अपने अधिकार में करने का प्रयत्न किया ।
                       • भर्तृभट्ट द्वितीय
खुम्माण के पुत्र भर्तृभट्ट द्वितीय को 977 ई. के आटपुर लेख में तीनों लोकों का तिलक बताया है । उसी लेख में अंकित है कि उसने राष्ट्रकूट वंश की राणी महालक्ष्मी से विवाह किया । 942 ई. से प्रतापगढ़ के अभिलेख में उसे महाराजाधिराज की उपाधि से विभूषित किया है । कृष्ण तृतीय के वर्णन से उसका चित्रकूट लेना प्रमाणित होता है । प्रतापगढ़ के लेख से हमें सचना मिलती है कि भर्तभट्ट द्वितीय ने धोटार्सी गाँव में (प्रतापगढ़ से 7 मील पूर्व में) इन्द्रराजादित्यदेव नामक राजा ने सूर्य-मन्दिर को पलास कूपिका (परासिया मन्दसौर से 15 मील दक्षिण में) गाँव में बम्बूलिका खेत भेंट किया । 943 ई. के आहड के एक खण्डित लेख में उसके समय में आदिवराह पुरुष के द्वारा गंगोद्भव तीर्थ में आदिवराह के मन्दिर निर्माण का उल्लेख है । भर्तृभट्ट का देहांत 943 और 951 ई. के बीच किसी समय हुआ ।
                             • अल्लट
भर्तृभट्ट का पुत्र अल्लट, जिसे ख्यातों में आलुराव कहा है, 10वीं शताब्दी के मध्य भाग के आस-पास मेवाड़ का स्वामी बना । उसके पिता तथा प्रपितामह के कार्यों से उसको अपने समय का शक्तिसम्पन्न तथा सफल शासक बनाने में बड़ी सहायता मिली । उस समय का राजनीतिक परिस्थिति से भी उसने लाभ उठाया हो ऐसा प्रतीत होता है । राष्टकट कई स्थाना पर प्रतिहारों को परास्त कर रहे थे । सिंहराज चौहान तथा धंग चन्देल भी प्रतिहारों में स्वतन्त्र होने में सफल थे । अल्लट ने भी बहुत सम्भव है, जैसा कि आहड के एक जैन मन्दिर का देव कुलिका के उपने की शक्तिकुमार के समय की प्रशस्ति से स्पष्ट है, अपने प्रबल शत्रु देवपाल परमार को परास्त किया । इस प्रकार की अल्लट द्वारा परमारों की पराजय में राष्ट्रकूटों की सहायता का भी बहुत बड़ा हाथ रहा हो, क्योंकि उसकी माता, जैसा कि कार वर्णित किया गया है, राष्ट्रकूटों की कन्या थी । इसी तरह हूण भी उसकी इस विजय में सहयोगी रहे हों, क्योकि हूण-परमार संघर्ष से ऐसी मैत्री होना स्वाभाविक था । इस मैत्री का सक्रिय रूप हम । अल्लट का विवाह हूण कन्या हरियादेवी में देखते हैं ।
  अल्लट एक सम्पन्न और सफल शासक था जो अल्लट के 953 ई. के शिलालेख से प्रमाणित होता है । इस शिलालेख में उसके समय में आहड के वराह मन्दिर की स्थापना तथा उसके प्रबन्ध के लिए गोष्टिका निर्माण तथा मन्दिर की व्यवस्था के लिए स्थानीय करों का लगाया जाना उल्लेखित है, जो उस समय की सम्पन्न व्यवस्था का द्योतक है । उक्त लेख से शासकीय व्यवस्था का भी बोध होता है जिसमें मुख्यमन्त्री, संधिविग्रहिक, अक्षपटलिक, वंदिपदि, भिषगाधिराज के नाम अंकित हैं । इस लेख मे यह भी ज्ञात होता है कि उसके समय में मेवाड़ व्यापारिक केन्द्र भी बन गया था, जहाँ कर्नाटक, मध्य प्रदेश, लाट, टक्कदेश (पंजाब का एक भाग), आदि से व्यापारी आया-जाया करते थे । वैसे तो आहड 2000 ई. पू. के समय से ही अच्छा कस्बा था, परन्तु अल्लट ने इसके महत्त्व को अपने राज्यकाल की सम्पन्नता से अधिक बढ़ा दिया । सी कारण आघाट के संस्थापकों में उसकी गणना की जाती है                             
                             • नरवाहन
नरवाहन अल्लट की मृत्यु के बाद मेवाड़ का शासक बना । इसने भी अपने पुर्वजों की भाँति मेवाड़ राज्य को सुदृढ़ बनाये रखा । चौहानों के साथ मैत्री सम्बन्ध स्थापित रखने के लिए उसने चौहान राजा जेजय की पुत्री से विवाह किया । शक्तिकुमार के समय के आहड के । 977 ई. के शिलालेख से मालूम होता है कि नरवाहन एक पराक्रमी और योग्य शासक था । प्रशस्तिकार ने उसके सम्बन्ध में लिखा है कि वह कलाप्रेमी, धीर, विजय का निवास स्थान और क्षत्रियों का क्षेत्र, शत्रुहन्ता, वैभव का निधि और विद्या की वेदी था‌ । उसने अपने पिता के समय से चलने वाले शासन-प्रबन्ध को सम्भवतः यथाविधि बनाये रखा । उसके समय के एक शिलालेख से, जो आहड के देवकुलिका के छवते में लगा हुआ है, प्रतीत होता है कि शासक-वर्ग का पद पैतृक था । अल्लट के समय के अक्षपटलाधीश मयूर के पुत्र श्रीपति को करवाहन ने अक्षपटलाधीश नियत किया । नार्थों के मन्दिर के शिलालेख में (971 ई.) नरवाहन को शिव का उपासक कहा है

     •  मेवाड़ का ह्रास - काल (997 - 1174)  •
नरवाहन के पीछे मेवाड की शक्ति का ह्रास आरम्भ होता है । शालिवाहन के समय में कई गुहिलवंशीय सोलंकियों की सेवा में जाकर रहे जो मेवाड़ के गुहिलों की शक्ति-क्षीणता प्रमाण है । इस दौर्बल्य का परिणाम यह हुआ कि शक्तिकुमार के समय में, जैसा कि सिद्ध अस्तिकुण्डों के शिलालेख (997 ई.) से स्पष्ट है कि मुंज ने आघाट को तोड़ा और प्रसिद्ध चित्तौड़ दुर्ग और उसके आस-पास के प्रदेश पर भी अधिकार स्थापित करने में सफल रहा । मुंज के उत्तराधिकारी और छोटे भाई सिंधुराज के पुत्र भोज ने चित्तौड़ में रहते हुए त्रिभुवन नारायण के मन्दिर का निर्माण कराया जो मोकलजी के मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है । कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति के अनुसार नागदे के भोजसर का निर्माण भोज के द्वारा हुआ था और 1022 ई. में उसके द्वारा नागदे में भूमिदान दिया गया था ।
    ऐसा प्रतीत होता है कि ग्यारहवीं शताब्दी के प्रथम-अर्द्ध अवधि तक मेवाड़ का कुछ भाग चित्तौड़ भी सम्मिलित था, परमारों के अधीन बना रहा । फिर ऐसा प्रतीत होता है कि परमारों से चालुक्य सिद्धराज ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया जो उसके पीछे उसके उत्तराधिकारी कुमारपाल के अधीन रहा ।
  शक्तिकुमार के बाद अम्बा प्रसाद भी निर्बल शासक था जो चौहान राजा वाक्पतिराज के द्वारा परास्त किया गया और युद्ध में मारा गया । इसके बाद लगभग 10 शासक ऐसे हुए जो इतने प्रतिभासम्पन्न नहीं थे जो खोई हुई मेवाड़ की शक्ति को पुनः स्थापित कर सकें । इस समय की वंशावली भी अशुद्ध-सी है । कुछ निश्चित आधार पर इनकी नामावली में शचिवर्म, नरवर्म, कीर्तिवर्म, योगराज, वैरेट, हंसपाल, वैरिसिंह,  विजयसिंह, अरिसिंह, चोडसिंह, विक्रमसिंह, आदि हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से हंसपाल ने (भैराघाट प्रशस्ति 1155 ई.) अपने निज शौर्य से शत्रुओं के समुदाय को अपने आगे झुकाया और वैरिसिंह ने परमारों से आहड लेकर उसके चारों ओर शहरपनाह और दरवाजे बनाकर अपनी शक्ति को सुदृढ़ किया । वैरिसिंह के उत्तराधिकारी विजयसिंह के पालडी और कदमाल के भूमिदान से संकेत मिलता है । कि गहिलों का आहड के आस-पास के भागों पर पुनः अधिकार हो गया था । मालवा के उदयादित्य की लड़की से उसने विवाह कर तथा अपनी लड़की अल्हणदेवी का विवाह कलचूरी के शासक के साथ कर उसने अपनी शक्ति को संगठित किया और अपने समर्थकों की संख्या को बढ़ाया ।
 विजयसिंह के पीछे अरिसिंह, चोडसिंह और विक्रमसिंह हुए जिनके विषय में हमें बहुत कम जानकारी है । विक्रमसिंह के पीछे उसका पुत्र रणसिंह मेवाड़ का शासक हुआ जिससे रावल और राणा शाखाएँ फटीं । रावल शाखा वाले मेवाड़ के शासक रहे जिनका अन्त अलाउद्दीन की चित्तौड़ विजय से हुआ और तब तक राणा शाखा वाले, जो सीसोदे के जागीरदार थे मेवाड़ के शासक बनते गये । रणसिंह ने, जिसे कर्णसिंह भी कहते हैं, आहोर के पर्वत पर किला बनवाया । उसके बाद क्षेमसिंह मेवाड़ का शासक बना जिसके सामन्तसिंह और कुमरसिंह दो लड़के थे । सामन्तसिंह ने 1174 ई. के आस-पास गुजरात के शासक, सम्भवतः अजयपाल से यद्ध किया और मेवाड़ का बहुत-सा भाग अपने अधिकार में कर लिया परन्तु सामन्तसिंह अपने पैतक राज्य को अधिक समय अपने अधिकार में नहीं रख सका । चौहान कीतू ने उसे मेवाड़ से निकाल दिया, तब उसे 1178 ई. के लगभग वागड में जाकर अपना नया राज्य स्थापित करना पड़ा । वटपद्रक (बड़ोंदा) उसके राज्य की राजधानी थी । 1285 ई. के समरसिंह के लेख से प्रमाणित होता है कि उसने मेवाड़ के सामन्तों की जागीरें छीन ली थीं । सम्भवतः सामन्तों को अप्रसन्न करने के कारण वह उनसे कोई सहायता प्राप्त नहीं कर सका हो और उसे अपने पैतृक राज्य से हाथ धोना पड़ा हो । सामन्तसिंह का विवाह अजमेर के चौहान शासक पृथ्वीराज द्वितीय की बहन पृथ्वीबाई से होना पाया जाता है । कीतू और पृथ्वीराज द्वितीय में अनबन रही जिससे सामन्तसिंह को कीतू के कोप का भाजन बनना पड़ा हो तो कोई आश्चर्य नहीं ।
 सामन्तसिंह के भाई मथनसिंह ने फिर से अपने वंश-परम्परागत राज्य को चौहान कीतू से छीना और अपने अधिकार में किया । उसके उत्तराधिकारी मथनसिंह और पद्मसिंह ने फिर से मेवाड़ की व्यवस्था स्थापित की उसने टांटेड जाति के उद्धरण को, जो दुष्टों को शिक्षा देने और शिष्टों का रक्षण करने में कुशल था, नागदा नगर का तलारक्ष नियुक्त किया । मथनसिंह के उत्तराधिकारी पद्मसिंह ने भी इसी उद्धरण के बड़े पुत्र योगराज को नागदा का तलारक्ष बनाया ।   इस प्रकार गुहिलों ने 13वीं सदी के प्रारम्भिक काल तक मेवाड़ में कई उथलपुथल होने पर भी, अपने कुल परम्परागत राज्य को बनाये रखा । कभी उनके हाथ से चित्तौड़, कभी आहड और कभी नागदा भी निकलते रहे, परन्तु फिर भी उन्होंने हिम्मत न हारी और धीरे-धीरे एक-एक भाग को वे अपने अधीन करते रहे । ऐसी स्थिति बनने में सोलंकियों, परमारों और चौहानों की निर्बलता भी एक बहुत बड़ा कारण थी । केवल चित्तौड़ इनके अधिकर में पूरी तौर से न आ सका जिसको विजय करने का श्रेय पद्मसिंह के पुत्र जैत्रसिंह को है जिसका वर्णन हम यथास्थान करेंगे ।

Saturday, March 28, 2020

• राजपूतों का उदय, अधिवासन और उनकी उत्पत्ति •

                              प्राक्कथन
 इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान राजपूत राज्यों की स्थापना है । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार की अव्यवस्था का प्रवर्तक बना । राजस्थान की गणतन्त्रीय जातियों ने (जिनमें मालव, यौधेय, शिवि आदि थी) जिन्होंने गुप्ताओं की अर्द्ध-अधीनता स्वीकार कर ली थी, इस अव्यवस्था से लाभ उठाकर फिर स्वतन्त्र हो गये और परस्पर विरोधी भावना से अपने अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने में लग गये । परन्तु इस पारस्परिक विद्वेष की प्रवृत्ति तथा-आचरण ने इन्हें निर्बल बना दिया । ऐसी अवस्था में हूणों के विध्वंसकारी आक्रमण आरम्म हो गये । इनके एक नेता तोरमन ने मालवा तक अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । उसके पुत्र मिहिरकुल ने तो प्रलयकारी आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई। गणतन्त्री व्यवस्था को जर्जरित कर दिया ।
 भाग्यवश मालवा के शासक यशोवर्मन ने, जिसकी शक्ति एक सम्मान प्राप्त कर चुकी थी, इन हूणों को लगभग 532 ई. में, परास्त करने में सफलता प्राप्त की । उसने मालवा तथा राजस्थान से हूणों को दबाया और उन्हें शान्त नागरिक के रूप में बसने को बाध्य किया । कुछ समय के लिए यशोवर्मन (यशोधर्मन) राजस्थान में सुख और सम्पदा लाने में सहायक सिद्ध हुआ ।
 परन्तु यह शान्ति क्षणिक थी । यशोवर्मन की मृत्यु के बाद फिर अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ । इधर तो राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे और उधर अव्यवस्थित गणतन्त्र की बिखरी। हई जातियाँ, जो अलग-अलग समूह में रहती थीं, फिर से अपने प्राबल्य के लिए संघर्षशील हो गयीं । किसी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया ।
 जब राजस्थान इस स्थिति से गुजर रहा था तो उत्तरी भारत की शक्ति (सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में) पुष्पभूति शासकों के हाथ में थी, जिनमें हर्षवर्धन प्रमुख था । इसके तत्त्वावधान में राजस्थान में फिर से एक शान्ति की लहर आयी, परन्तु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी वह न सुधर सकी । हर्ष की मृत्यु (648 ई.) के बाद तो इस शक्ति के विभाजन ने और बल पकड़ लिया ।
इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में एक सामाजिक परिवर्तन भी उसी समय से आरम्भ हो गया था । राजस्थान में, जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, विदेशी जातियों के जत्थे दूसरी
शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी तक आते रहे और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे । परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हई । कई मारे गये और कई यहाँ बस गये । जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा ।
 इस प्रकार के सामंजस्य में जैन धर्म ने भी काफी जोर दिया हो ऐसा दिखायी पड़ता है, क्योंकि जैन धर्म में भारतीय अथवा अभारतीय का कोई भेद न था । सम्भवतः बचे हुए शक और हूणों को स्थानीय समुदाय में मिलाने में जैन धर्म ने अपना प्रयत्न अवश्य किया हो । इसका प्रमाण हरिभद्र सूरी द्वारा  भीनमाल में कई विदेशियों को यहाँ के समाज में मिलाया जाना प्रसिद्ध है । हिन्दू धर्म भी इस युग तक विदेशियों को भारतीय समाज में सम्मिलित करने में अनुदार नहीं था । आबू के यज्ञ से नयी जातियों का उद्भव , जिसका विस्तार से आगे वर्णन किया जायेगा इस स्थिति को प्रमाणित करता है । हिन्दू तथा जैन धर्म में दीक्षित इन विदेशियों की एक नयी जाति बन गयी जिसने अपने यद्धप्रियता आदि गुणों के साथ स्थानीय धर्म और परम्पराओं के प्रति अपनी निष्ठा जोड़ दी । इस प्रकार जो विदेशी जातियों पहले आक्रमणकारी के रूप में राजस्थान को अस्त-व्यस्त करने में सक्रिय रही थीं वे अब नयी व्यवस्था की जन्मदाता बनीं । जहाँ-जहाँ वे बसीं वहाँ-वहाँ स्थानीय जातियों से आचार - विचार तक जीविका के विचार से उनमें साम्यता हो गयी जिसके फलस्वरूप इनके कुलों की अपनी-अपनी सीमाएं बन गयीं, उनका अपना संगठन बन गया और अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल उनमें एक राजनीतिक व्यवस्था भी उत्पन्न हो गयी । धार्मिक पुरोहितों ने उन्हें हिन्दू तथा जैन धर्म के संरक्षक पाकर क्षत्रियों के रूप में ग्रहण कर लिया और इन समूहों के नेताओं तथा अनुयायियों को 'राजपुत्र' की संज्ञा दी । इस प्रकार राजपुत्र (राजपूत) और क्षत्रिय समानार्थक समझे जाने लगे ।
                      • राजपूतों का अधिवासन
यह समन्वय सामाजिक स्तर तक ही सीमित नहीं रहा । जिन- जिन समहों ने मैत्री व एक-दूसरे के प्रभाव को स्वीकार कर लिया था उन्होंने सहयोग से आस-पास के क्षेत्र में अपना राजनीतिक प्रभाव भी स्थापित करना प्रारम्भ किया । लगभग छठी शताब्दी से इन अधिवासियों के द्वारा सत्ता संस्थापन के उल्लेख मिलते हैं और ये भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि गुजरात पंजाब तथा गंगा-यमुना के मैदानी भाग से उन दिनों में कई राजपूतों के समदाय राजस्थान में आये और उन्होंने भी यहीं के अधिवासियों के सहयोग से अपनी सत्ता स्थापन करने में सफलता प्राप्त की । इन्होंने पहले दक्षिण, दक्षिण-पश्चिमी, दक्षिण-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी भाग में अपने अधिवासों की स्थापना की और कुछ एक भीतरी भागों में भी जाकर बस गये । इस तरह राजपूतों के पृथक-पृथक सत्ता क्षेत्र की इकाइयों में सम्पूर्ण राजस्थान बँट गया । इस गतिविधि में उनको बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ा और इनमें उन्हें सैकड़ों वर्ष लग गये । इस तरह 13वीं शताब्दी तक उनके अधिकार में पर्याप्त भू-भाग आ गया ।
  इतना लम्बा समय जो इनका अपने अधिवासन में लग गया उसके प्रमख दो कारण दिखायी देते हैं : प्रथम कारण तो यह था कि उनको कई जंगली, पठारी, पहाडी, नदी - नाले व रेगिस्तानी भागों को पार कर अपने लिये उपयुक्त अधिकार क्षेत्र को ढूंढना पड़ा था जो सहज काम न था । द्वितीय महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उन्हें पद-पद पर स्थानीय जातियों, जिनमें भील, मीणा, मेव, मवाती तथा बाह्मण जातियों के समूह थे, टक्कर लेनी पड़ी थी । ये जातियाँ जंगल व पहाडी भागों में अपनी बस्तियाँ बसाकर पहले से ही रहती थी और वास्तविक अर्थ में स्वतन्त्र थीं । इन जातियों का संघर्ष राजपूतों के साथ कब-कब हुआ और कैसे हुआ इसके समसामयिक प्रमाण तो नहीं हैं, परन्तु अनुश्रुतियों, कथानकों और वंशावलियों के आधार से प्रमाणित होता है कि इन राजपूतों और भील, मेव, मीणा आदि जाति का जगह-जगह संघर्ष होता रहा । कहीं उनकी बस्तियाँ नष्ट की गयीं, कहीं उनको दबाकर अर्द्ध-आश्रित के रूप में रखा और कहीं उनसे यदा-कदा झगड़ा चलता रहा । जेता, कोट्या, डूँगरिया भील और आमेर के  मीणों और राजपूत वंशों के संघर्ष इस कथन के साक्षी हैं । यह अधिवासन एक लम्बे युग की कहानी है । इस काल में राजपूतों ने अपने अध्यवसाय और शौर्य का अच्छा परिचय दिया ।
इन प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने- अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, मारवाड के प्रतिहार और राठौड, मेवाड के गहिल, सांभर के चौहान, चित्तौड के मौर्य, भीनमाल तथा आबू के चावडा, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख हैं । शिलालेखों के आधार से हम जानते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस-पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ । इसी समय के आस-पास सांभर में चौहान, राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया । पाँचवीं या छठवीं शताब्दी में मेवाड़ और आस-पास के भागों में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया । 10वीं  शताब्दी में अर्थूणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गये । बारहवीं शताब्दी तथा तेरहवीं शताब्दी के आस-पास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानों ने पुन: अपनी शक्ति का संगठन किया और उसका कहीं-कहीं विघटन भी होता रहा ।
                       • राजपूतों की उत्पत्ति
 इन राजपूत कुलों का अधिवासन राजस्थान के सन्दर्भ में बड़े महत्त्व का है । अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि हम उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी कुछ विवेचन करें । ज्यों-ज्यों इन अधिवासियों की प्राधान्यता स्वीकृत होती गयी त्यों-त्यों धर्माधिकारियों, विद्वानों और भाटों ने उनके वंश की पवित्रता स्थापित करने के लिए उनका उद्भव हिन्दू देवताओं- सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि आदि से जोड़ दिया । ऐसा करने का सीधा यह अभिप्राय था कि राजपूत विशद्ध क्षत्रिय है और उनका सम्बन्ध देवताओं से है । परन्तु इस प्रकार की दैवी उत्पत्ति में कई यूरोपियन तथा स्थानीय विद्वान सन्देह प्रकट करते हैं । उनकी इस सम्बन्ध में मान्यता है कि राजपूत जाति प्राचीन
क्षत्रिय नहीं परन्तु उतर-पश्चिम के आने वाले सीथियन, शक, यूची आदि को सन्तान हैं । राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार टॉड ने तथा उनके ग्रन्थ के सम्पादक क्रुक ने इन्हें सीथियन होना बताया है । डा. भण्डारकर ने भी इसी मान्यता को अपने तकों पर कसकर प्रतिपादित किया है । स्मिथ ने कुछ राजपूत कुलों को स्थानीय और कुछ एक को सीथियन प्रमाणित किया । वैद्य ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि राजपूत विशुद्ध क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे । डा. हीराचन्द गौरीशंकर ओझा ने इन दोनों मतों के बीच अपना मत स्थिर करते हुए लिखा है कि राजपूतों की नसों में क्षत्रिय रक्त प्रवाहित था । परन्तु क्षत्रिय जाति में एल, इक्ष्वाकु ही नहीं वरन् कुशाण, शक आदि अनार्य जातियाँ भी सम्मिलित थीं । अतएव राजपूतों को क्षत्रिय मानने अथवा न मानने के सम्बन्ध में अनेक मत बन गये हैं जिनका वर्गीकरण हम अग्निवंशी, सूर्य-चन्द्र वंशी, विदेश वंशीय तथा गुर्जर और ब्राह्मण वंशीय शीर्षक के अन्तर्गत करेंगे और देखेंगे कि प्रत्येक में तथ्यातथ्य कितना है ।

                             • अग्निवंशीय
राजपूतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है । इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दबरदाई के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' से होता है । उसका लिखना है कि राजपूतों के चार वंश-प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये । ऐसा करना इसलिए आवश्यक हो गया कि वे राक्षस ऋषियों के यज्ञ को हाड़, माँस, विष्ठा, मूत्रादिक के द्वारा अपवित्र करते थे । इस कथानक का प्रचार 13वीं से 18वीं शताब्दी तक भाटों के द्वारा खूब होता रहा । नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा । इन चारों वंशों के राजपूतों ने इस मत को अपनी विशुद्धता की पुष्टि करने के लिए अपना लिया । कर्नल टॉड ने भी इस अग्निवंशीय मत को अपने मत  'विदेश वंशीय राजपूतों' की पुष्टि में मान्यता दी । क्रूक ने अग्निवंशीय कथानक को इनका विदेशियों से शुद्ध करने का आयोजन बताते हुए उसकी प्रामाणिकता पर बल दिया ।    परन्तु यदि गहराई से 'अग्निवंशीय मत' का विश्लेषण किया जाय तो सिद्ध हो जाता है कि यह मत केवल मात्र कवियों की मानसिक कल्पना का फल है । कोई इतिहास का विद्यार्थी यह मानने के लिए उद्यत नहीं हो सकता कि अग्नि से भी योद्धाओं का सृजन होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशों की उद्भूति से यह अभिव्यक्ति करता है कि जब विदेश सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने अपने आपको शत्रुओं से मुकाबला करने को सजग कर दिया । यदि चन्दबरदाई वास्तव में इन वंशों को अग्निवंशीय मानता होता तो वह अपने ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से राजपूतों की 36 शाखाओं को  सूर्य, चन्द्र और यादव वंशीय न लिखता । छठी शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों की सामग्री हमें यह प्रमाणित करने में सहायता पहुँचाती है । कि इन चार वंशों में से तीन वंश सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय थे । उदाहरणार्थ , प्रतिहार जिन्होंने  कन्नौज में अपने राज्य को स्थापित किया था सूर्यवंशी थे । राजशेखर ने महेन्द्रपाल को रघुकल तिलक की उपाधि से अलंकृत किया है । इसी तरह कई दान - पत्रों से सोलंकियों का चन्द्रवंशी होना प्रमाणित होता है । बिहारी प्रस्तर अभिलेख में चालुक्यों की उत्पत्ति चन्द्रवंशीय बतायी गयी है । हर्ष अभिलेख, पृथ्वीराज विजय काव्य तथा हम्मीर महाकाव्य से चौहान सूर्यवंशीय क्षत्रिय की सन्तान हैं । परमारों के सम्बन्ध में जहां-तहाँ उल्लेख मिलता है जिनमें उदयपुर
प्रशस्ति, पिंगल सूत्रवृत्ति, तेजपाल अभिलेख आदि मख्य हैं, वहाँ अग्निवंशीय नहीं बताया गया है । उनके लिए 'बृह्म-क्षत्रकुलीन' शब्द का प्रयोग किया है । वास्तव में 'अग्निवंशीय कथानक' पर विश्वास करना व्यर्थ है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है । इस कथानक का स्वरूप डिंगल साहित्य की शैली पर निर्मित होने से ऐतिहासिक तथ्य से रिक्त है । यह बात सर्वमान्य है कि रासो साहित्य में सभी अंश मौलिक नहीं वरन् पिछले समय से जोडे हए हैं । अतएव सारे कथानक का मूल पाठ से मिलावट करना अस्वाभाविक नहीं । डा. ओझा भी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि ऐसी दशा में 'पृथ्वीराज रासो' का सहारा लेकर जो विद्वान इन चार राजपूत वंशों को अग्निवंशीय मानते हैं । यह उनको हठधर्मी है । वैद्य ने 'अग्निकुल मत' को कवि - कल्पना बताते हुए लिखा है कि अपने वंश को  प्रतिष्ठा का प्रतीक समझकर राजपूतों ने भी इसकी सत्यता पर कभी सन्देह प्रकट नहीं किया । डाॅ. दशरथ शर्मा भी इस मत के सम्बन्ध में लिखते हैं कि यह भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र है । डा . ईश्वरीप्रसाद भी इसे तथ्य से रहित बताते हुए लिखते हैं कि यह ब्राह्मणों का एक  प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है ।
                      • सूर्य और चन्द्रवंशीय मत
जहाँ 'अग्निकुल' मत खण्डन डा. ओझा ने किया है वहाँ वे राजपूतों को सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय बताते हैं । अपने मत की पुष्टि में उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों के प्रमाण दिये हैं । उदाहरण के लिए, 1028 वि. (971 ई.) के नाथ अभिलेख में , 1034 वि. (977 ई.) के आटपुर लेख में , 1342 वि. (1285 ई) के आबू के शिलालेख में तथा 1485 वि. ( 1428 ई.) के श्रृंगीऋषि के लेख में गुहिलवंशीय राजपूतों को रघुकुल से उत्पन्न बताया गया है । इसी तरह से पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य, सुजान चरित्र ने चौहानों को क्षत्रिय माना है । वंशावली लेखकों ने राठौड़ों को सूर्यवंशीय, यादवों, भाटियों और चन्द्रावती के चौहानों को चन्द्रवंशीय निर्दिष्ट किया है । इन सब आधारों से उनकी मान्यता है कि “राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के ही वंशधर हैं और जो लेखक ऐसा नहीं मानते उनका कथन प्रमाणशून्य है ।"       परन्तु इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक है, क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बताते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशीय राजा था । बल्कि सूर्य और चन्द्रवंशीय समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का सम्बन्ध इन्द्र, पद्मनाभ, विष्णु आदि से बताते हुए एक काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है । इससे स्पष्ट है कि जो लेखक राजपूतों को चन्द्रवंशीय या सूर्यवंशीय मानते हैं वे भी इनकी उत्पति के विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाये है । अलबत्ता इस मत का एक ही उपयोग हमें
दिखायी देता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का मुकाबला सफलतापूर्वक किया आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी ।
                         • विदेशी वंश का मत
 इन दोनों मतों के विपरीत राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सीथियन बताया है । इसके प्रमाणों में उनके बहुत-से प्रचलित रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से साम्यता रखते हैं, उल्लेख किया है । ऐसे रिवाजों में सूर्य की पूजा, सती-प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों का पूजन, तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से मिलना आदि हैं । डाॅ . स्मिथ ने भी राजपूतों के इस विदेशी वंशज होने के मत को स्वीकार किया है और बताया है कि शक और यूची की भाँति गुर्जर और हूण जातियाँ भी शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिलकर हिन्दू बन गयीं । उनमें से जिन कुटुम्बों या शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार प्राप्त कर लिया वे तत्काल क्षत्रिय या राजवर्ण में मिला लिये गये । वे फिर लिखते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि परिहार और उत्तर के कई दूसरे प्रसिद्ध राजपूत वंश इन्हीं जंगली समुदायों से निकलते हैं । जो ई. सं. की पाँचवीं या छठी शताब्दी में भारतवर्ष में आये थे । इन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और इन्हीं से चन्देल राठौड़ गहरवाड आदि प्रसिद्ध राजपूत वंश निकले और उन्हीं ने अपनी उत्पत्ति को प्रतिष्ठित बताने के लिए उसे सूर्य-चन्द्र से जा मिलाया । कर्नल टॉड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का खण्डन करते हुए यह दलील दी है कि चूँकि वैदिक क्षत्रियों और मध्यकालीन राजपूतों के समय में इतना अन्तर है कि दोनों के सम्बन्ध को सच्चे वंश-क्रम से नहीं जोड़ा जा सकता, इसलिए उनकी मान्यता यह है कि जो शक और सीथियन तथा हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश-रक्षक के रूप में सम्मान प्राप्त कर चुके थे । उन्हें महाभारत तथा रामायणकालीन क्षत्रियों से सम्बन्धित कर दिया गया और उन्हें सूर्य तथा चन्द्रवंशीय मान लिया गया ।
इस विदेशी वंशीय मत को कुछ स्थानीय विद्वानों ने रस्मो-रिवाज तथा समसामयिक ऐतिहासिक साहित्य पर अमान्य ठहराने का प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वानों में डाॅ. ओझा प्रमुख हैं । उनका कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मो-रिवाजों में जो साम्यता कर्नल टॉड ने बतायी है वह साम्यता विदेशियों से राजपूतों ने उद्धृत नहीं की है, वरन् उनकी साम्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है । अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाज व परम्पराओं का उल्लेख साम्यता बताने के लिए कर्नल टॉड ने किया है वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं । उनको इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार है । इसी तरह से डाॅ. ओझा ने अभिलेखों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दूसरी शताब्दी से सातवीं तक क्षत्रियों के उल्लेख मिलते हैं और मौर्य तथा नन्दों के पतन के बाद भी क्षत्रिय होना प्रमाणित है । कटक के पास उदयगिरि के वि. सं. पूर्व की दूसरी शताब्दी के राजा खारवेल के लेख में कुसंब जाति के क्षत्रियों का उल्लेख है । इसी तरह नासिक के पास की पाण्डव गुफा के वि. सं. की दूसरी शताब्दी के लेख में उत्तमभाद्र क्षत्रियों का वर्णन मिलता है । गिरिनार पर्वत के 150 ई. के पीछे के लेख में यौधेयों को स्पष्ट रूप स क्षत्रिय लिखा है । वि. सं. तीसरी शताब्दी के आस - पास जग्गयपेट तथा नागार्जुनी कोंड के लेखों में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का नामोल्लेख है ।
  वैसे तो जो प्रमाण डाॅ. ओझा ने रिवाजों की मान्यता का खण्डन करने के लिये दिये हैं वे कर्नल टॉड की कल्पना को निराधार प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं । इसी तरह पण्डितजी का नन्द-वंश के पहले और बाद में क्षत्रियों का होना भी सिद्ध करना प्रशंसनीय है । फिर भी इनकी दलीलों में वे यह नहीं ठीक-ठीक सिद्ध कर पाये हैं कि राजपूत, जो छठी व सातवीं शताब्दी से एक जाति के रूप में भारतीय राजनीतिक जीवन में आये उनका प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्ध था कि विदेशियों से, जिन्होंने निश्चित रूप से हिन्दू संस्कृति को अपना लिया था अब महत्त्व का प्रश्न यह रह जाता है कि दूसरी शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी तक आने वाले विदेशी अन्ततोगत्वा कहाँ गये ? इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ ।

                            • गुर्जर वंश का मत
राजपूता को गुर्जर मानकर, डाॅ. भण्डारकर ने विदेशी वंशीय मत को और बल दिया है । उनको मान्यता है कि गुर्जर जाति जो भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम विभाग में फैली हुई था उसका श्वेत-हूणों के साथ निकट सम्बन्ध था और ये दोनों जातियाँ विदेशी थीं । इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है । इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान भी गूजर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गूजर कहा गया है । राष्ट्रकूट और अरब यात्री भी प्रतिहारों को गूजर ही बताते हैं । जहाँ तक चौहानों का विदेशियों से उद्गम है , उनकी मान्यता है कि सेसेरियन मुद्राओं पर 'वासुदेव वहमन' जो अंकित मिलता है , वह 'वासुदेव चहमन' है ।
  जो प्रमाण डाॅ. भण्डारकर ने राजपूतों का उद्गम गुर्जरों से सिद्ध करने के पक्ष में दिये हैं । उनसे वैद्य सहमत नहीं हैं । इनकी मान्यता है कि प्रतिहारों को जो गुर्जर कहा गया है वह जाति की संज्ञा से नहीं, वरन् उनका देश विशेष — गुजरात पर अधिकार होने के कारण है । राष्ट्रकूटों ने तथा अरब यात्रियों ने भी उन्हें भूमि विशेष से सम्बन्धित होने के कारण गुर्जर कहा है । इसी तरह डाॅ. दशरथ शर्मा मानते हैं कि सेसेरियन मुद्रा वाले 'वासुदेव वहमन' तथा 'वासूदेव चौहान' दोनों समकालीन नहीं हैं । ऐसी स्थिति में चौहानों को विदेशी नहीं ठहराया जा सकता है ।
                             • ब्राह्मणवंशीय मत
डाॅ. भण्डारकर ने जहाँ गुर्जर मत को विदेशी आधार पर स्थिर किया है , वहाँ यह भी प्रतिपादन किया है कि कुछ राजपूत वंश धार्मिक वर्ग से भी सम्बन्धित थे जो विदेशी थे । इस मत की पुष्टि के लिए वे बिजोलिया-शिलालेख को प्रस्तुत करते हैं जिसमें वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है । उनके अनुसार राजशेखर ब्राह्मण का विवाह अवन्ति सुन्दरी के साथ होना चौहानों का ब्राह्मण वंश से उत्पत्ति होने का एक अकाट्य प्रमाण है । कायमखाँ रासो में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतायी गयी है जो जमदग्नि गोत्र से था । इस कथन की पुष्टि सुण्डा तथा आबू अभिलेख से भी होती है । इसी तरह डाॅ. भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी ।
डाॅ. ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हैं और लिखते हैं कि जो भ्रान्ति डाॅ. भण्डारकर को राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति के सम्बन्ध में हुई है वह 'द्विज' ,'ब्रह्मक्षत्री', 'विप्र ', आदि शब्दों से हुई है जिनका प्रयोग राजपूतों के लिए अभिलेखों में हुआ है, परन्तु इनकी मान्यता है कि इन शब्दों का प्रयोग क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए ।

वैसे तो डाॅ. भण्डारकर का राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी ब्राह्मणवंशीय मत राजवंशों के लिए लागू किया जाना ठीक नहीं दिखायी देता, परन्तु इसके पीछे बल अवश्य है । मेरी कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, द्वितीय पट्टिका की खोज और उसके पद्यांशों का सम्पादन इस निर्णय पर पहँचाते हैं कि बापा रावल, जो गुहिल वंशीय थे, आनन्दपुर के ब्राह्मण वंश से थे और जिन्होंने नागदा में आकर हारीत ऋषि की अनुकम्पा से शासक की प्रतिष्ठा को प्राप्त किया । बापा के पीछे भर्तृभट्ट को भी चाटसू अभिलेख में 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिए कहा है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रियत्व प्राप्त हुआ था । चाहे हम 'ब्रह्मक्षत्री' तथा 'द्विज' शब्दों को ब्राह्मण या क्षत्री के सन्दर्भ में काम में लायें, परन्तु वस्तुतः 'विप्र' शब्द का उपयोग पुराने लेखों में, जो इन राजपूत वंशों के लिए किया गया है, उनका ब्राह्मण होना सिद्ध करता है । भारतवर्ष का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों को उपस्थित करता है जहाँ प्रारम्भ में ब्राह्मण होते हुए कई राजवंश क्षत्रिय पद को प्राप्त हुए । ऐसे वंशों में काण्व तथा शुंग वंश मुख्य हैं ।

 सारांश यह है कि जिस तरह शक, पल्हव, हूण आदि विदेशी यहाँ आये और जिस तरह उनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसका साक्षी इतिहास है । ये लोग लाखों की संख्या में थे । पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना भी प्रामाणिक है । ऐसी अवस्था में उनका किसी-न-किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था । उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया । इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी जो यकायक क्षात्र धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गयी और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया । यह स्थिति सामाजिक उथल-पथल की पोषक है । हरियादेवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशीय अल्लट के साथ होना जो कि सन् 1034 के शक्ति कुमार के शिलालेख से स्पष्ट है, इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है । जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ में आ गयी तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रियों की संज्ञा दी । उनकी राजनीतिक स्थिति ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे । इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि सम्भवतः सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो ।

Thursday, March 26, 2020

• राजपूत राज्यों के उदय के पूर्व प्राचीन राजस्थान। •

 • प्राक्कथन •
 राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना ऐतिहासिक काल-क्रम में बहुत ही निकट की है । इन राज्यों की स्थापना के पहले युग-युगान्तर के अन्तराल व्यतीत होते रहे और यहाँ भू-भाग की विविधता और वैचित्र्य की भाँति ऐतिहासिक घटनाओं में विलक्षणता आती रही । इस प्रकार के वैविध्य की साक्षी मरुस्थल या चट्टानों में दबे जीवाश्म या भू-गर्भ में दबे नमक के आकार अथवा मिट्टी के ढेर में सोयी हुई बस्तियाँ तथा मन्दिर , आदि दे रहे है । इन सामग्रियों का वैज्ञानिक अध्ययन हमें इस निश्चय पर पहुंचाता भारतीय प्राचीनतम बस्तियों में राजस्थान का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है और उसकी गणना अनुमानतः एक लाख वर्ष प्राचीन प्रतीकों में की जा सकती  है । 

                    • राजस्थान और प्रस्तर-युग
बनास, गम्भीरी, बेडच, बाधन तथा चम्बल नदियों को घाटियों तथा इनके समीपवर्ती तटीय स्थानों के परिवेक्षण से प्रमाणित हो चुका है कि दक्षिण - पूर्वी तथा उत्तर - पूर्वी राजस्थान की  नदियों  के किनारे, जो वर्तमान कालीन बाँसवाड़़ा, डुंगरपुुर
उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़, इन्द्रगढ़ आदि जिलों या तहसीलों के अन्तर्गत है . प्रस्तरयुगीन मानव रहता था और पत्थरों के हथियारों का प्रयोग था । ये हथियार भद्दे और भोंडे  थे । इस प्रकार के हथियार बहुतायत से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं जो ये हैं : 
नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अचनर, ऊणचा देवडी, हीरोजी का खेड़ा, बल्लूखेड़ा (बडच और गम्भीरी के तट चित्तौड जिले में), भैंसरोडगढ, नवाघाट (चम्बल और वामनी के तट पर), हमीरगढ़, सरूपगंज, मण्डपिया, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेडा, पुर, पटला, संद, कुवारिया, गिलुॅड आदि (बनास तट तथा भीलवाडा जिले में), लूणी (जोधपुर में गुणों की घाटी), सिंगारी और पाली (गुहिया और बाँटी नदी की घाटी), समदडी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भाॅडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, दुन्दारा, गोलियो, पीपाड, खीमसर, उम्मेदनगर आदि ( मारवाड़ में ), गागरोन( झालावाड़), गोविन्दगढ़( सागरमती अजमेर जिले में), कोकानी (परवानी नदी कोटा जिले में) भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुर, सियालपुरा, पच्चर, तरावट, गोमासला, भरनी (बनाम के तट पर टोक जिल में ) । इन हथियारों को प्रयोग में लाने वाला मनुष्य निरा बर्बर था । उसका आहार शिकार किये हुए बनेले जानवरों का मांस और प्रकृति द्वारा उपजाये कन्द, मूल, फल आदि थे । इस काल का मनुष्य अपने मृतकों को जानवरों, पक्षियों और मछलियों के लिए मैदान या पानी में फेंक दिया करता था । 

            •   प्रस्तर - धातु युग और राजस्थान  •
अब तक जो हमने राजस्थान के बारे में जानने का मार्ग ढूँढा, वह तमपूर्ण था । आगे चलकर मानव इस स्तर से आगे बढ़ा और राजस्थानी सभ्यता की गोधूलि की आभा स्पष्ट दिखायी देने लगी । ऋग्वैदिक काल से शायद सदियों पूर्व आहड (उदयपुर के निकट) और दृषद्वती और सरस्वती (गंगानगर के निकट) नदियों के काँटे जीवन लहरें मारता हुआ दिखायी देने लगा । इन काँठों पर मानव - संस्कृति सक्रिय थी और कुछ अंश में हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता की समकक्ष तथा समकालीन - सी थी । आज पाँच - छ : हजार वर्ष पहले इन नदी - घाटियों में बसकर मानव पशु पालने, भाण्ड बनाने, खिलौने तैयार करने, मकान - निर्माण करने आदि कलाओं को जान गया था । इस सुदूर अतीत को समझने के लिए हमें कालीबंगा व आघाटपर से उपलब्ध सामग्री का अध्ययन करना होगा ।

                             • कालीबंगा •
 आहड और बेडच नदी की घाटी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सभ्यता दृषद्वती और सरस्वती घाटी में पायी है । जो हड़प्पा की सभ्यता के समकालीन - सी है । इन नदियों के काँठे पर कई ऐसे स्थान हैं जो उस युग के प्रतीक हैं , जिनमें कालीबंगा बड़ा प्रसिद्ध है । आज से 4 - 5 हजार वर्ष पूर्व यहाँ उदीयमान सभ्यता विकसित हुई जिसका प्रमाण साहित्य नहीं वरन् खुदाई से प्राप्त कई वस्तुएँ हैं । इन वस्तुओं का तथा स्थान विशेष का विश्लेषण यह प्रमाणित करता है कि यहाँ के जन - जीवन और शासन-व्यवस्था का ऐसा स्वरूप बन गया कि वह राजस्थान के लिए एक गौरव की घटना हो गयी । यहाँ की खुदायी से मिलने वाली वस्तुओं में बर्तन, ताँबे के औजार, चूड़ियाँ, अंकित मुहरें, तौल, मृण्मय मूर्तियाँ, खिलौने आदि हैं । यहाँ के मकान, चौड़ी सड़कें, किला, गोल कुएँ , दीवारें आदि अपने ढंग के हैं जो उस समय के शालीन तथा क्रमिक नगर योजना के अंग हैं । पत्थर के अभाव के कारण दीवारें सूर्यतपी ईंटों से बनती थीं और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था । व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ और कूड़ा डालने के भाण्ड नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे । यदि मुहरों की उत्कीर्ण लिपि को जब कभी पढ़ा जा सकेगा तो इस सभ्यता के कई पक्ष स्पष्ट हो सकेंगे । 

अभाग्यवश ऐसे समृद्ध सभ्यता के केन्द्र का ह्रास हो गया । सम्भवतः भूचाल से या कच्छ के रन के रेत से भर जाने से ऐसा हुआ । जो समुद्री हवाएँ पहले इस ओर से नमी लाती थीं और वर्षा का कारण बनती थीं वे ही हवाएँ अब सूखी चलने लगीं और कालान्तर में यह भू - भाग रेत का समुद्र बन गया । सरस्वती नदी के अन्तर्ध्यान होने के उल्लेख पराणों में मिलते है जो इस अवस्था के द्योतक हैं । 
                      • आघाटपुर या आहड
आहड आज खण्डहरों के ढेर में दबा पड़ा है । यह कहना कठिन है कि उस नगर का विध्वंस किन कारणों को लेकर हुआ । भूकम्प , आहड नदी का प्रवाह या बाढ़ , आक्रमण आदि कोई भी नगर विध्वंस का कारण हो सकता है । परन्तु निकट भविष्य की खुदाई जो 45 फुट नीचे तक कुछ खाइयों में की जा चुकी है और लगभग 15 स्तर में दिखायी देती है यह प्रमाणित करती है कि वर्षा के प्राचुर्य तथा आहड घाटी की उपज ने सम्भवतः भीलों को यहाँ आकर बसने के लिए आकर्षित किया और उन्होंने यहाँ बसकर हजारों वर्ष अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाये रखा । यदि पूरे खण्डहर के ढेर को , जो लगभग 1600 फुट लम्बा और 550 फुट चौडा है खोद जाय तो यहाँ की विकसित सभ्यता के कई अज्ञात पहलू स्पष्ट हो सकते हैं । फिर भी कछ परीक्षण - खण्डन ने यहां से प्राप्त सामग्री को हमारे लिए उपलब्ध किया है जिसके आधार पर प्रमाणित होता है कि आहड दक्षिणी - पश्चिमी राजस्थान की सभ्यता का केन्द्र था ।
 यहाँ के मकान पत्थरों से बने थे जिनमें सामने से सफाई से चिनाई की जाती थी । कमरे  विशेष रूप से बड़े होते थे जिन्हें बाँसों और कवेलू से छाया जाता था । कमरों में बाँस की पड़दी बनाकर छोटे कमरों में परिणित किया जाता था । पड़दी पर चिकनी मिट्टी चढ़ाकर टिकाऊ बनाया जाता था । फर्श को भी मिट्टी से लीपा जाता था । कुछ खाइयों में दीवारें एक पर दूसरी बनायी हुई दिखायी देती है और कभी तो वे ऊपर की दीवार के समान्तर और कभी तिरछी जाती हैं जो अलग - अलग समय के निर्माण की द्योतक हैं ।
आहड सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे । यहाँ से मिलने वाले बड़े - बड़े भाण्ड तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न का उत्पादन करते थे और उसका पकाकर खाते थे । एक बड़े कमरे से जो बड़ी - बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं । इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन प्रभूत मात्रा में प्राप्त रहा होगा ।
 आहड के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी । यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकाबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिले हैं । साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे 'ग्लेज' करके चमकीला बना दिया जाता था । बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ इरानियन शैली की बनती थीं जिससे हमें आहडियों का सम्बन्ध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है ।
इनके आभषण सीप, मुॅगा, बीज तथा मूल्यवान पत्थरों के होते थे । ये लोग सींग वाले पशु, कुत्ते, मेंडा, हाथी, गेंडा तथा मनुष्य आकृति वाले मिट्टी के खिलौने बनाते थे । इनके हथियार पत्थर बजाय ताँबे के बनते थे । सम्भवत : इस नगर का वैभव इससे निकट मिलने ताँबे की खानों के कारण भी हो।
इनके मृतक-संस्कार के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, परन्तु पहली-दूसरी शताब्दी के ऊपर की सतह के मनुष्य के अस्थिर-पिंजर के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वे मृतकों को आभूषण युक्त गाड़ते थे जिनका मस्तक उत्तर और पाँव दक्षिण को रखे जाते थे ।
यह सभ्यता, ऐसा प्रतीत होता है कि आहड से उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ी जैसा कि गिलुॅड और भगवानपुरा से मिलने वाली सामग्री से सिद्ध है । आगे चलकर इन स्थानों की सभ्यता मालवा और सौराष्ट्र के सम्पर्क में आयी, नवदातोली में मिलने वाले उपकरणों और गिलुॅड के उपकरणों की सभ्यता इस अनुमान की पुष्टि करती है । फिर भी यह तो सर्वथा मान्य है कि आइड सभ्यता का आरम्भ गिलुॅड की सभ्यता (लगभग 1500 ई.पू.) से अधिक प्राचीन रहा होगा, क्योंकि आहड का जटिल और समन्वित नागरिक जीवन नि:सन्देह शताब्दियों के  विकास का परिणाम था ।
                 • राजस्थान और आर्य बस्तियाँ
धीरे धीरे सरस्वती और दृषद्वती तटीय भाग की प्राचीन बस्तियाँ हटकर पूर्व और दक्षिण की ओर किसी कारणवश बढ़ने लगी और सम्भवतः आर्य, जो बसने के स्थानों की खोज में । इधर-उधर बढ़ रहे थे, इन नदियों की उपत्यकाओं में आकर बसने लगे । इसके प्रमाण में भूरी मिट्टी के बर्तन के टुकड़े हैं जो अनूपगढ़ से दूसरे ढेर से या तरखानवाला डेरा की खुदाई से प्राप्त हैं । ये भाण्डों के टुकड़े हड़प्पा के बर्तनों के टुकड़ों से भिन्न हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहीं से आर्य बस्तियों कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढी हो । इन्द्र और सोम की अर्चना के मन्त्रों की रचना, यज्ञ की महत्त्वता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को इसी नदी की घाटी में निवास करते हुए हुआ था, ऐसी विद्वानों की मान्यता है ।
महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रमाणित होता है कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे जो आर्यों की यादव शाखा के नेता थे । इसी तरह अनुश्रुतियों के आधार से माना जाता है कि पुष्करारण्य और अर्बुदाचल, मध्य प्रदेश और गुर्जर देश को मिलाने वाले मार्ग पर थे और उनकी गणना बड़े तीर्थों में थी । महाभारत में शाल्व जाति की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है जो भीनमाल है सांचोर और पिरोही के आस-पास थीं ।

राजस्थान और जनपद युग (300 ई. पू . से 300 ई.)
इस प्रारम्भिक आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का प्रभात होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएं अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं । तीसरी ईसा पूर्व से हमें यहाँ मुद्राएँ, आभूषण, अभिलेख, नगरों के खण्डहर अधिक परिमाण में मिलते हैं जिससे प्रमाणित होता है कि पूर्वी राजस्थान में ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति पनप रही थी । वैराट, रेड, सांभर, नगर और नगरी खनन और अन्वेषण ने इस सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है । वैसे तो सिकन्दर के अभियान से जर्जरित तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने में उत्सक दक्षिण पंजाब की मालवशिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं । ये जातियाँ जनपद के रूप में व्यवस्थित थीं जिनके सिक्के लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से मिलते हैं । इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद , नगरी का शिव जनपद, अलवर के भाग का शाल्व जनपद प्रमुख हैं । परन्तु लगभग इसी काल से लगाकर चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल  राजस्थान में मिलता है जब कुशाण शक्ति निर्बल हो चली थी और भारतवर्ष में गुप्ताओं के पूर्व कोई केन्द्रीय शक्ति नहीं रही थी ।
मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट नगर था । कुछ मुद्राएँ तथा एक ताम्र-पत्र इसी प्रान्त से उपलब्ध हुए हैं जो इनकी शक्ति संगठन काल की तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ले जाते हैं । समयान्तरों में मालव अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये और प्रथम शताब्दी ईसा के अन्त तक गणतन्त्रीय राज्य के रूप में बने रहे । थोड़े समय तक पश्चिमी क्षत्रपों के प्रभाव ने इन्हें निर्बल बना दिया परन्तु तीसरी शताब्दी में इन्होंने अपने संगठन द्वारा क्षत्रपों को पराजित कर अपनी स्वतन्त्रता को पुनः स्थापित किया । सम्भवतः श्री सोम ने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया और ब्राह्मणों को गोदान से सन्तुष्ट किया । ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतन्त्र बने रहे ।
 भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन भी अपनी विजयश्री के लिए बड़े प्रसिद्ध हैं । इनकी मुद्राओं पर भी 'अर्जुनायनानां जयः' अंकित मिलता है जो प्रमाणित करता है कि ये क्षत्रपों को परास्त करने में मालवों के सहयोगी रहे हों, क्योंकि मालव मुद्राओं पर भी इसी भाँति 'मालवानां जयः' मिलता है । इस प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक बलशाली गणतन्त्रीय कबीला था जिनमें कुमारनामी इनका एक बड़ा शक्तिशाली नेता हो चुका है । यौधेय सम्भवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे जो एक रुद्रदामा के लेख से स्पष्ट है । कुषाणों की साम्राज्य-शक्ति से मुकाबला कर इन्होंने वीरता और अदम्यता की ख्याति प्राप्त की थी । ये इन्हीं का गणराज्य था जिसने अन्य गणतन्त्रीय व्यवस्थाओं से मिलकर शक-ऋषिक-तुरवार सत्ता को राजस्थान , पंजाब और दोआब से उखाड़ फेंका ।
यह तो निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि मालव या यौधेयों में किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी परन्तु कुछ शिलालेखों तथा निकट सामयिक ग्रन्थों से यह अनुमान लगाया सकता है कि यौधेय व्यवस्था में अर्द्ध - राजसत्तात्मक शासन के ढंग को अपनाया गया था और उनके प्रमुख नेता को महाराज-सेनापति कहा जाता था । उसकी नियुक्ति यौधेयगण करता था । वैसे तो वैशाली के गणतन्त्र में भी सेनापति का एक पद था परन्तु सतत् युद्ध की स्थिति ने यौधेय सेनापति को महाराज की उपाधि से भी अलंकृत कर दिया था । मालवों के जनपदो में भी उपरीय व्यवस्थापक का एक स्थान था परन्तु उसके अधिकारों पर नियन्त्रण जनपद का होना स्वाभाविक था ।
 इस युग में स्थापत्य कला ने अपनी एक विशेष प्रगति की थी । वैराट के विहार रेड के ईंटों के मकान , बीजक पहाड़ी का गोलाकार मन्दिर , नगरी का गरुड़ स्तम्भ , शिला प्राकार , स्तूप तथा वास्तविक और त्रिरत्ल के चिह्न उस समय के स्थापत्य के अवशेष के अच्छे उदाहरण हैं ।
इसी प्रकार कुषाणों के सम्पर्क ने राजस्थान के पत्थर और मृण्मय मूर्ति-कला को एक नवीन मोड दिया जिसके नमूने अजमेर के नाद की शिव प्रतिमा, साँभर का स्त्री का धड़ तथा अश्व । तथा अजामुख हयग्रीव या अग्नि की मूर्ति अपने आप कला के अद्वितीय नमूने हैं । बीकानेर । क्षेत्र में बड़ीपल और रंगमहल की मूर्तियों के केश, आभूषण और उत्तरीय के दिखाव गांधार शैली से प्रभावित दीख पड़ते हैं परन्तु वास्तव में उनमें एक स्थानीयपन है जो गले के आभूषण, कन्धे के आच्छादन तथा बालों की बनावट से स्पष्ट है । परन्तु गांधार शैली का इतने दूर तक तीसरी शताब्दी में प्रभाव बढ़ना असंगत प्रतीत होता है ।
लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा काल में धर्म का राजस्थान में एक स्वरूप निर्धारित हो चुका था । नगरी, लालसोट, रेड, वैराट, पुष्कर के खण्डहर तथा स्तम्भ और स्तूप यह प्रमाणित करते हैं कि राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बुद्ध धर्म का काफी प्रचार था । परन्तु यौधेय और मालवों के यहाँ आने से, ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के ह्रास के चिह्न दिखायी देने लगे । यज्ञ, दान, दक्षिणा का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया । श्री सोम नान्दसा में षष्ठिरात्र यज्ञ के उत्सव के उपलक्ष में गौओं का दान लेकर और ब्राह्मणों को सन्तुष्ट कर अपने आपको कृतकृत्य समझने लगा । घोसुंडी शिलालेख से (200 ई . पू) विदित है कि शंकर्षण और वासुदेव की आराधना उस समय प्रचलित थीं । बीकानेर संग्रहालय की दानलीला की मूर्ति कृष्ण कथा की लोकप्रियता प्रमाणित करती है । समाज में शिव तथा महिषासुर मर्दिनी (नगर की) की आराधना प्रचलित थी । यौधेय युद्धप्रिय होने से कार्तिकेय और चामुण्डा के उपासक थे । इन सभी धार्मिक विश्वासों के होते हुए पंचरात्र विधि और शैव सिद्धान्त के दर्शक अभी बौद्धिक विचार में पूरा प्रवेश नहीं करने पाये थे । ये सभी शैशव स्थिति से गुजर रहे थे ।

          •राजस्थान-गुप्तकाल से हूण आक्रमण तक 
                                (300-600ई.)
गुप्ताओं की शक्ति के उदय के साथ-साथ राजस्थान में स्थित मानव, यौधेय, आभीर आदि गणराज्य यथाविधि बने रहे जैसा कि समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख से प्रमाणित होता है । परन्तु इस लेख में मोखरियों का जिक्र नहीं है जो कोटा के आस-पास शक्तिशाली थे । सम्भवतः, 350 ई . तक ये नगण्य हो गये हों । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त सम्राटों ने इन विभिन्न गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया परन्तु इन्हें अर्द्ध-आश्रित रूप में बनाये रखा । इस स्थिति में वे ईसा की पांचवीं शताब्दी तक गणतन्त्र के रूप में बने रहे । परन्तु जब हूणों ने पंजाब तथा अन्य उत्तरी भागों को अपने आतंक से नष्ट-भष्ट कर दिया तो उस तूफानी अभियान का धक्का सहन करने की क्षमता उनमें नहीं रही । हूण अपनी नृशंस प्रवृत्ति से वैराट, रंगमहल, बडापल, पीर सुल्तान-की-थड़ी आदि समृद्ध स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने से न हिचके । राजस्थान के लिए छठवीं शताब्दी का समय शुभ नहीं था, इस अर्थ में कि यहाँ सदियों से पनपी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी ।

                         • शासन - व्यवस्था •
जहाँ तक राजनीतिक जीवन का प्रश्न है, हमने पहले ही पढ़ा है कि राजस्थान में केन्द्रीय गुप्त व्यवस्था ने आन्तरिक शासन में कोई हस्तक्षेप नीति को नहीं अपनाया । इसका फल यह हुआ कि गणतन्त्रीय व्यवस्थाएँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र बनी रहीं । एक प्रकार का नाममात्र का आधिपत्य स्वीकार करने के अतिरिक्त उनका केन्द्रीय राज्य से कोई विशेष सम्बन्ध नहा । था । परन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु के पीछे धीरे - धीरे गणतन्त्रीय राज्यों में निर्बलता आ जाने से । उनमें भी छोटी-छोटी इकाइयाँ बन गयीं जिनका वर्णन यथास्थान किया जायेगा ।
                • सामाजिक और आर्थिक स्थिति
 इस काल में राजस्थान का समाज वणों में विभाजित था, परन्तु विदेशी प्रभाव तथा विदेशी जातियों के आ जाने से सामाजिक विघटन और विकृति के तत्त्व दिखायी देने लगे थे । ज्यों-ज्यों शकों की शक्ति कम होती गयी उनको यहाँ की स्थायी सामाजिक व्यवस्था से मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे के प्रति सहयोग तथा सहवास की भावना उत्पन्न करने की क्षमता आ गयी । हूणों के आक्रमण ने पहले के विदेशी समुदाय को स्थानीय समुदाय के साथ मिला दिया । आगे चलकर हूण भी ऐसे समाज के साथ मिल गये । इस युग की आर्थिक स्थिति की जानकारी हमें भरतपुर, बुन्दीवाली डूंगरी (जयपुर), अजमेर तथा मेवाड़ से मिलने वाले चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम की सुवर्ण मुद्राओं से होती है ।

                          • धार्मिक प्रगति
राजस्थान के गप्त शासनकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई । सांभर के नालियामाकी रजत मद्राओं से जो कुमारगुप्त प्रथम की हैं और जिन पर मयूर की आकृति बनी हुई है होता है कि उस समय स्वामी कार्तिक की पूजा लोकप्रिय थी । कोटा के मुकन्दरा और कृष्ण विलास के मन्दिर तथा भीनमाल, मंडोर के स्तम्भ, पाली और कामा की विष्णु, कृष्ण, बलराम आदि की मूर्तियाँ इन क्षेत्रों में वैष्णव धर्म के प्रसार की द्योतक हैं । ये मूर्तियाँ कुछ तो जोधपुर तथा कुछ भरतपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इसी तरह 423 ई. का गंगाधर शिलालेख और 425 ई . का नगरी का शिलालेख इन स्थानों में विष्णु के मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख करते हैं ।
जब वैष्णव धर्म समाज का धर्म बना हुआ था तो उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में इस धर्म के साथ-साथ शैव धर्म की भी मान्यता थी । कोटा का चारचोमा का मन्दिर और रंगमहल व वडोपल से प्राप्त शिव-पार्वती की मूर्तियाँ तथा साँभर, कल्याणपुर और कामा के शिव-पार्वती की मूर्तियाँ शैव धर्म की लोकप्रियता बताती हैं ।
 इन धर्मों के साथ-साथ उदयपुर जिले का भ्रमरमाता का मन्दिर, नालियासर की दुर्गादेवी की खण्डित पट्टिका तथा दुर्गा और गंगा का रेड से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर अंकन यहाँ मातृदेवी की उपासना का प्रचलन बताते हैं ।
 इन देवता और देवियों की उपासना के साथ - साथ राजस्थान में ब्राह्मण धर्म और अनुष्ठान को प्रोत्साहन मिला हुआ था । एक खण्डित शिलालेख में जो लगभग चौथी शताब्दी का है,
वाजपेय यज्ञ का उल्लेख है तो 424 के गंगाधर यूप लेख में नरवर्मन द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने की अभिलाषा से यज्ञों के करने का वर्णन है । इसी गंगाधर के लेख में तान्त्रिक विधि से मातृदेवी की आराधना का उल्लेखतन्त्र और मन्त्र में विश्वास रखने की ओर संकेत करता है । मण्डोर सिरोही तथा पिण्डवाडा से मिलने वाली पत्थर काँसे और सर्वधात् की मुर्तियां पश्चिमी राजस्थान में जैन धर्म के प्रचार और प्रसार पर  प्रकाश डालती हैं।
                    • मूर्तिकला तथा वास्तुकला
 गुप्त कला की अभिव्यक्ति में राजस्थान बड़ा समृद्ध है । इस काल की प्रतिमाएँ जो अमझेरा (डूॅगरपुर), कल्याणपुर और जगत (उदयपुर), आम्बानेरी (जयपुर), मण्डोर ओसियाँ (जोधपुर), बाडोली, कोटा, बसेरी (धौलपुर), नीलकंठ और सेंचली (अलवर) आदि स्थानों से प्राप्त हुई है; अलंकृत कला, सते हुए त्रिचीवरों तथा केश के नवीन प्रसाधनों से गुप्त शैली के अधिक समीप हैं । रंगमहल, मुण्डा, पीरसल्लानरी-थडी से, जो बीकानेर क्षेत्र में हैं, जो सामग्री उपलब्ध हुई है यह अपनी सजीवता, सादगी, गति तथा तक्षण कला में विशिष्टता प्रकट करती हैं । साँभर की उत्खनन सामग्री में मिटटी के बर्तनों के टुकड़ों पर बनी हुई विविध आकृतियाँ, फूलों की पंखड़ियाँ, पत्तियों की बनावट और जालीदार रेखाकृति परम्परा के विचार से ऐसी निर्दोष है कि उन्हें देखते ही बनता है ।
इस युग में वास्तू-शिल्प को बहुत प्रोत्साहन मिला जो मूकन्दरा तथा नगरी के मन्दिरों से प्रमाणित है । इन मन्दिरों के शिखर, प्रासाद तथा चौकोर और गोल खम्भौं की प्रणाली उत्तर गुप्तकाल में बनने वाले ओसियाँ आम्बानेरी और बाडोली के मन्दिरों की निर्माण कला में नयी दिशा निर्धारित करने के आधार बने । इतना ही नहीं, इन्हीं मन्दिरों की मूलभूत वास्तु-कुशलता को लेकर भारतीय नागर और द्रवित शैली का विकास हुआ था ।
                      • शिक्षा का प्रसार
 इस काल में निःसन्देह अनेक प्रतिभाशाली मेधावी हए जिन्होंने स्तम्भ-लेखों के द्वारा काव्य-प्रतिभा तथा सुसंस्कृत होने का प्रमाण दिया है । इससे यह भी प्रकट होता है कि इन मेधावियों ने अपनी साहित्यिक प्रखरता का जनता पर गहरा प्रभाव डाला था । ठीक इस युग की समाप्ति के बाद सातवीं शताब्दी में भीनमाल में माध का होना और चित्रकूट (चित्तौड़) में हरिभद्र सूरि के होने से सिद्ध है कि राजस्थानी साहित्यिक तथा काव्य सम्बन्धी प्रगति गुप्त काल में विकसित और समृद्ध अवस्था में थी, जो निकट भविष्य में प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों को जन्म दे सकी । इस काल की बौद्धिक अभिसृष्टि से विदित होता है कि उस युग में प्रचलिता शिक्षा प्रणाली भी अच्छी रही होगी । ब्रह्म सिद्धान्तों का लेखक ब्रह्मगुप्त भीनमाल में रहकर गणित सम्बन्धी ज्ञान को प्रसारित करता रहा । सम्भवतः 72 आर्य छन्दों में इसी विद्वान 'ध्यानग्रह' का सृजन किया था ।

Tuesday, March 24, 2020

राजस्थान के इतिहास के प्रमुख स्रोत

         •• महत्वपूर्ण शिलालेख एवं प्रशस्तिया ••
• घोसुण्डी शिलालेख : नगरी ( चित्तौड़ ) के निकट घोसुण्डी गाँव में प्राप्त । इसमें ब्राह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में द्वितीय  शताब्दी ईसा पूर्व के गजवंश के सर्वतात द्वारा अश्वमेघ यज्ञ करने एवं चारदीवारी बनाने का उल्लेख है ।
• नाथ प्रशस्ति : 971 ई . का यह लेख एकलिंगजी के मंदिर के पास लकुलीश मंदिर से प्राप्त हुआ है । इसमें नागदा नगर एवं बापा , गुहिल तथा नरवाहन राजाओं का वर्णन है ।
• हर्षनाथ की प्रशस्ति : हर्षनाथ ( सीकर ) के मंदिर की यह  973 ई . की है । इसमें मंदिर का निर्माण आपट द्वारा किया प्रशस्ति का उल्लेख है । इसमें चौहानों के वंशक्रम का उल्लेख है ।
• आर्थणा के शिवमंदिर की प्रशस्ति : आथूणा ( बाँसवाडा ) के शिवालय में उत्कीर्ण  1079 ई . के इस अभिलेख में वागड़ के परमार नरेशों का अच्छा वर्णन है ।
• किराडू का लेख : किराडू ( बाडमेर ) के शिवमंदिर में संस्कृत में 1161 ई . का उत्कीर्ण लेख जिसमें वहाँ की परमार शाखा का वंशक्रम दिया है । इसमें परमारों की उत्पत्ति ऋषि वशिष्ठ के आबू यज्ञ से बताई गई है ।

      प्रशस्ति                |        रचयिता
• बिजौलिया शिलालेख   |  गुणभद्र
• जैन कीर्तिस्तंभ लेख     | जीजा
• कीर्तिस्तम्भ प्रशस्ति      | कवि अत्रि व महेश भट्ट
• रायसिंह प्रशस्ति          | जैता
• जगन्नाथ राय प्रशस्ति    | कृष्णभट्ट
• राज प्रशस्ति               |  रणछोड़भट्ट तैलंग
• बिजौलिया शिलालेख : बिजौलिया के पार्श्वनाथ मंदिर के पास एक चट्टान पर उत्कीर्ण 1170 ई . का यह शिलालेख जैन श्रावक लोलाक द्वारा मंदिर के निर्माण की स्मृति में बनवाया गया था । इसमें सांभर व अजमेर के चौहानों को वत्सगौत्रीय ब्राह्मण बताते हुए उनकी वंशावली दी गई है । इसका रचयिता गुणभद्र था । इस लेख में उस समय के क्षेत्रों के प्राचीन नाम भी दिये गये हैं ।
• सच्चिका माता मंदिर की प्रशस्ति :ओसियाँ ( जोधपुर ) में सचिया माता के मंदिर में उत्कीर्ण इस लेख में कल्हण एवं कीतिपाल का वर्णन है ।
• लूणवसही व नेमिनाथ की प्रशस्ति : माउण्ट आबू के इन प्रसिद्ध जैन मंदिरों में इनके निर्माता वस्तुपाल , तेजपाल तथा आबू के परमार वंशीय शासकों की वंशावली दी हुई है । यह प्रशस्ति उस समय के जनसमुदाय की विद्यानिष्ठा दान परायणता एवं धर्मनिष्ठा की भावना का अच्छा वर्णन करती है।• चीरवा का शिलालेख : चीरवा ( उदयपुर ) के एक मंदिर के बाहरी द्वार पर उत्कीर्ण 1273 ई . का यह शिलालेख बापा रावल के  वंशजों की कीर्ति का वर्णन करता है ।
• जैन कीर्तिस्तंभ : चित्तौड़ के जैन कीर्ति स्तंभ में उत्कीर्ण तीन अभिलेखों का स्थापनका जीजा था । इसमें जीजा के वंश , मंदिर निर्माण एवं दानों का वर्णन मिलता है । ये 13वीं सदी के हैं ।
• रणकपुर प्रशस्ति : रणकपुर के चौमुखा मंदिर के स्तंभ पर उत्कीर्ण यह प्रशस्ति 1439 ई . की है । इसमें मेवाड़ के राजवंश , धरणक सेठ के वंश एवं उसके शिल्पी का परिचय दिया गया है । इसमें बापा एवं कालभोज को अलग - अलग व्यक्ति बताया गया है । इसमें महाराणा कुंभा की विजयों एवं विरुदों का पूरा वर्णन है ।
 • कीर्ति स्तंभ प्रशस्ति : यह विजय स्तंभ में संस्कृत भाषा में कई शिलाओं पर कुंभा के समय ( दिस . , 1460 ई . ) में उत्कीर्ण की गई है । अब केवल दो ही शिलाएँ उपलब्ध हैं । इस प्रशस्ति में बापा से लेकर कुंभा तक की विस्तृत वंशावली एवं उनकी उपलब्धियों का वर्णन है । इसके प्रशस्तिकार महेश भट्ट हैं ।

• कुंभलगढ़ का शिलालेख( 1460ई . ) : यह 5 शिलाओं पर उत्कीर्ण था जो कुंभश्याम मंदिर ( कुंभलगढ़ ) , जिसे अब मामदेव मंदिर कहते हैं , में  लगाई हुई थीं । इसके राज वर्णन में गुहिल वंश का विवरण एवं शासकों की उपलब्धियों का वर्णन मिलता है । इसमें बापा रावल को विप्रवंशीय बताया गया है । रचयिताः कवि महेश ।
• एकलिंगजी के मंदिर की दक्षिण द्वार की प्रशस्ति :  यह महाराणा रायमल द्वारा मंदिर के जीर्णोद्धार के समय ( मार्च , 1488 ई . ) उत्कीर्ण की गई है ।  इसमें भी मेवाड़ के शासकों की वंशावली , तत्कालीन समाज की आर्थिक , सामाजिक , धार्मिक स्थिति व  नैतिक स्तर की जानकारी दी गई है । इसके रचियता महेश भट्ट हैं ।
• रायसिंह प्रशस्ति ( जूनागढ़ प्रशस्ति )  : बीकानेर नरेश रायसिंह द्वारा जूनागढ़ दुर्ग में स्थापित की गई प्रशस्ति जिसमें दुर्ग के निर्माण की तिथि तथा राव बीका से लेकर राव रायसिंह तक के शासकों की उपलब्धियों का वर्णन है । इसके रचयिता जइता नामक जैन मुनि थे । यह संस्कृत भाषा में है ।
• जगन्नाथ राय प्रशस्ति : यह उदयपुर के जगन्नाथराय मंदिर में काले पत्थर पर मई , 1652 में उत्कीर्ण की गई थी । इसमें बापा से  सांगा तक की उपलब्धियों , हल्दीघाटी युद्ध , कर्ण के समय सिरोंज के विनाश के वर्णन के अलावा महाराणा जगतसिंह के युद्धों एवं पुण्य कार्यों का विस्तृत विवेचन है । प्रशस्ति के रचयिता कृष्णभट्ट हैं ।
• राज प्रशस्ति : राजसमन्द झील की नौ चौकी पाल की ताकों में लगी 25 काले पाषाणों पर संस्कृत में उत्कीर्ण यह प्रशस्ति 1676 ई . में महाराजा राजसिंह द्वारा स्थापित कराई गई । यह पद्यमय है । इसके रचयिता रणछोड़ भट्ट तैलंग थे । इसमें बापा से लेकर जगतसिंह - राजसिंह तक के शासकों की वंशावली व उपलब्धियों तथा महाराणा अमरसिंह द्वारा मगलों से की गई संधि का उल्लेख है । राजसिंह के समय का विशद वर्णन है ।
• वैद्यनाथ मंदिर की प्रशस्ति : पिछोला झील ( उदयपुर ) के निकट सीसारमा गाँव के वैद्यनाथ मंदिर में स्थित महाराणा संग्राम सिंह द्वितीय यह प्रशस्ति 1719 ई . की है । इसमें बापा के हारीत ऋषि की कृपा से राज्य प्रालिका मेयर तथा बापा से लेकर संग्रामसिंह - द्वितीय जिसने यह मंदिर बनवाया था , तक का संक्षिप्त परिचय है ।

विभिन्न रियासतों में प्रचलित सिक्के 
• विजयशाही , भीमशाही - जोधपुर
• गजशाही - बीकानेर
• उदयशाही - डुँगरपुर
• स्वरूपशाही , चाँदोड़ी - मेवाड़
• रावशाही - अलवर
• अखैशाही - जैसलमेर
• गुमानशाही - कोटा
• झाड़शाही - जयपुर
• मदनशाही - झालावाड़
• तमंचाशाही - धौलपुर
• रामशाही - बूंदी