प्राक्कथन
इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान राजपूत राज्यों की स्थापना है । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार की अव्यवस्था का प्रवर्तक बना । राजस्थान की गणतन्त्रीय जातियों ने (जिनमें मालव, यौधेय, शिवि आदि थी) जिन्होंने गुप्ताओं की अर्द्ध-अधीनता स्वीकार कर ली थी, इस अव्यवस्था से लाभ उठाकर फिर स्वतन्त्र हो गये और परस्पर विरोधी भावना से अपने अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने में लग गये । परन्तु इस पारस्परिक विद्वेष की प्रवृत्ति तथा-आचरण ने इन्हें निर्बल बना दिया । ऐसी अवस्था में हूणों के विध्वंसकारी आक्रमण आरम्म हो गये । इनके एक नेता तोरमन ने मालवा तक अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । उसके पुत्र मिहिरकुल ने तो प्रलयकारी आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई। गणतन्त्री व्यवस्था को जर्जरित कर दिया ।
भाग्यवश मालवा के शासक यशोवर्मन ने, जिसकी शक्ति एक सम्मान प्राप्त कर चुकी थी, इन हूणों को लगभग 532 ई. में, परास्त करने में सफलता प्राप्त की । उसने मालवा तथा राजस्थान से हूणों को दबाया और उन्हें शान्त नागरिक के रूप में बसने को बाध्य किया । कुछ समय के लिए यशोवर्मन (यशोधर्मन) राजस्थान में सुख और सम्पदा लाने में सहायक सिद्ध हुआ ।
परन्तु यह शान्ति क्षणिक थी । यशोवर्मन की मृत्यु के बाद फिर अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ । इधर तो राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे और उधर अव्यवस्थित गणतन्त्र की बिखरी। हई जातियाँ, जो अलग-अलग समूह में रहती थीं, फिर से अपने प्राबल्य के लिए संघर्षशील हो गयीं । किसी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया ।
जब राजस्थान इस स्थिति से गुजर रहा था तो उत्तरी भारत की शक्ति (सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में) पुष्पभूति शासकों के हाथ में थी, जिनमें हर्षवर्धन प्रमुख था । इसके तत्त्वावधान में राजस्थान में फिर से एक शान्ति की लहर आयी, परन्तु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी वह न सुधर सकी । हर्ष की मृत्यु (648 ई.) के बाद तो इस शक्ति के विभाजन ने और बल पकड़ लिया ।
इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में एक सामाजिक परिवर्तन भी उसी समय से आरम्भ हो गया था । राजस्थान में, जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, विदेशी जातियों के जत्थे दूसरी
शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी तक आते रहे और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे । परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हई । कई मारे गये और कई यहाँ बस गये । जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा ।
इस प्रकार के सामंजस्य में जैन धर्म ने भी काफी जोर दिया हो ऐसा दिखायी पड़ता है, क्योंकि जैन धर्म में भारतीय अथवा अभारतीय का कोई भेद न था । सम्भवतः बचे हुए शक और हूणों को स्थानीय समुदाय में मिलाने में जैन धर्म ने अपना प्रयत्न अवश्य किया हो । इसका प्रमाण हरिभद्र सूरी द्वारा भीनमाल में कई विदेशियों को यहाँ के समाज में मिलाया जाना प्रसिद्ध है । हिन्दू धर्म भी इस युग तक विदेशियों को भारतीय समाज में सम्मिलित करने में अनुदार नहीं था । आबू के यज्ञ से नयी जातियों का उद्भव , जिसका विस्तार से आगे वर्णन किया जायेगा इस स्थिति को प्रमाणित करता है । हिन्दू तथा जैन धर्म में दीक्षित इन विदेशियों की एक नयी जाति बन गयी जिसने अपने यद्धप्रियता आदि गुणों के साथ स्थानीय धर्म और परम्पराओं के प्रति अपनी निष्ठा जोड़ दी । इस प्रकार जो विदेशी जातियों पहले आक्रमणकारी के रूप में राजस्थान को अस्त-व्यस्त करने में सक्रिय रही थीं वे अब नयी व्यवस्था की जन्मदाता बनीं । जहाँ-जहाँ वे बसीं वहाँ-वहाँ स्थानीय जातियों से आचार - विचार तक जीविका के विचार से उनमें साम्यता हो गयी जिसके फलस्वरूप इनके कुलों की अपनी-अपनी सीमाएं बन गयीं, उनका अपना संगठन बन गया और अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल उनमें एक राजनीतिक व्यवस्था भी उत्पन्न हो गयी । धार्मिक पुरोहितों ने उन्हें हिन्दू तथा जैन धर्म के संरक्षक पाकर क्षत्रियों के रूप में ग्रहण कर लिया और इन समूहों के नेताओं तथा अनुयायियों को 'राजपुत्र' की संज्ञा दी । इस प्रकार राजपुत्र (राजपूत) और क्षत्रिय समानार्थक समझे जाने लगे ।
• राजपूतों का अधिवासन •
यह समन्वय सामाजिक स्तर तक ही सीमित नहीं रहा । जिन- जिन समहों ने मैत्री व एक-दूसरे के प्रभाव को स्वीकार कर लिया था उन्होंने सहयोग से आस-पास के क्षेत्र में अपना राजनीतिक प्रभाव भी स्थापित करना प्रारम्भ किया । लगभग छठी शताब्दी से इन अधिवासियों के द्वारा सत्ता संस्थापन के उल्लेख मिलते हैं और ये भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि गुजरात पंजाब तथा गंगा-यमुना के मैदानी भाग से उन दिनों में कई राजपूतों के समदाय राजस्थान में आये और उन्होंने भी यहीं के अधिवासियों के सहयोग से अपनी सत्ता स्थापन करने में सफलता प्राप्त की । इन्होंने पहले दक्षिण, दक्षिण-पश्चिमी, दक्षिण-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी भाग में अपने अधिवासों की स्थापना की और कुछ एक भीतरी भागों में भी जाकर बस गये । इस तरह राजपूतों के पृथक-पृथक सत्ता क्षेत्र की इकाइयों में सम्पूर्ण राजस्थान बँट गया । इस गतिविधि में उनको बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ा और इनमें उन्हें सैकड़ों वर्ष लग गये । इस तरह 13वीं शताब्दी तक उनके अधिकार में पर्याप्त भू-भाग आ गया ।
इतना लम्बा समय जो इनका अपने अधिवासन में लग गया उसके प्रमख दो कारण दिखायी देते हैं : प्रथम कारण तो यह था कि उनको कई जंगली, पठारी, पहाडी, नदी - नाले व रेगिस्तानी भागों को पार कर अपने लिये उपयुक्त अधिकार क्षेत्र को ढूंढना पड़ा था जो सहज काम न था । द्वितीय महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उन्हें पद-पद पर स्थानीय जातियों, जिनमें भील, मीणा, मेव, मवाती तथा बाह्मण जातियों के समूह थे, टक्कर लेनी पड़ी थी । ये जातियाँ जंगल व पहाडी भागों में अपनी बस्तियाँ बसाकर पहले से ही रहती थी और वास्तविक अर्थ में स्वतन्त्र थीं । इन जातियों का संघर्ष राजपूतों के साथ कब-कब हुआ और कैसे हुआ इसके समसामयिक प्रमाण तो नहीं हैं, परन्तु अनुश्रुतियों, कथानकों और वंशावलियों के आधार से प्रमाणित होता है कि इन राजपूतों और भील, मेव, मीणा आदि जाति का जगह-जगह संघर्ष होता रहा । कहीं उनकी बस्तियाँ नष्ट की गयीं, कहीं उनको दबाकर अर्द्ध-आश्रित के रूप में रखा और कहीं उनसे यदा-कदा झगड़ा चलता रहा । जेता, कोट्या, डूँगरिया भील और आमेर के मीणों और राजपूत वंशों के संघर्ष इस कथन के साक्षी हैं । यह अधिवासन एक लम्बे युग की कहानी है । इस काल में राजपूतों ने अपने अध्यवसाय और शौर्य का अच्छा परिचय दिया ।
इन प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने- अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, मारवाड के प्रतिहार और राठौड, मेवाड के गहिल, सांभर के चौहान, चित्तौड के मौर्य, भीनमाल तथा आबू के चावडा, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख हैं । शिलालेखों के आधार से हम जानते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस-पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ । इसी समय के आस-पास सांभर में चौहान, राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया । पाँचवीं या छठवीं शताब्दी में मेवाड़ और आस-पास के भागों में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया । 10वीं शताब्दी में अर्थूणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गये । बारहवीं शताब्दी तथा तेरहवीं शताब्दी के आस-पास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानों ने पुन: अपनी शक्ति का संगठन किया और उसका कहीं-कहीं विघटन भी होता रहा ।
• राजपूतों की उत्पत्ति •
इन राजपूत कुलों का अधिवासन राजस्थान के सन्दर्भ में बड़े महत्त्व का है । अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि हम उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी कुछ विवेचन करें । ज्यों-ज्यों इन अधिवासियों की प्राधान्यता स्वीकृत होती गयी त्यों-त्यों धर्माधिकारियों, विद्वानों और भाटों ने उनके वंश की पवित्रता स्थापित करने के लिए उनका उद्भव हिन्दू देवताओं- सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि आदि से जोड़ दिया । ऐसा करने का सीधा यह अभिप्राय था कि राजपूत विशद्ध क्षत्रिय है और उनका सम्बन्ध देवताओं से है । परन्तु इस प्रकार की दैवी उत्पत्ति में कई यूरोपियन तथा स्थानीय विद्वान सन्देह प्रकट करते हैं । उनकी इस सम्बन्ध में मान्यता है कि राजपूत जाति प्राचीन
क्षत्रिय नहीं परन्तु उतर-पश्चिम के आने वाले सीथियन, शक, यूची आदि को सन्तान हैं । राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार टॉड ने तथा उनके ग्रन्थ के सम्पादक क्रुक ने इन्हें सीथियन होना बताया है । डा. भण्डारकर ने भी इसी मान्यता को अपने तकों पर कसकर प्रतिपादित किया है । स्मिथ ने कुछ राजपूत कुलों को स्थानीय और कुछ एक को सीथियन प्रमाणित किया । वैद्य ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि राजपूत विशुद्ध क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे । डा. हीराचन्द गौरीशंकर ओझा ने इन दोनों मतों के बीच अपना मत स्थिर करते हुए लिखा है कि राजपूतों की नसों में क्षत्रिय रक्त प्रवाहित था । परन्तु क्षत्रिय जाति में एल, इक्ष्वाकु ही नहीं वरन् कुशाण, शक आदि अनार्य जातियाँ भी सम्मिलित थीं । अतएव राजपूतों को क्षत्रिय मानने अथवा न मानने के सम्बन्ध में अनेक मत बन गये हैं जिनका वर्गीकरण हम अग्निवंशी, सूर्य-चन्द्र वंशी, विदेश वंशीय तथा गुर्जर और ब्राह्मण वंशीय शीर्षक के अन्तर्गत करेंगे और देखेंगे कि प्रत्येक में तथ्यातथ्य कितना है ।
• अग्निवंशीय •
राजपूतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है । इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दबरदाई के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' से होता है । उसका लिखना है कि राजपूतों के चार वंश-प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये । ऐसा करना इसलिए आवश्यक हो गया कि वे राक्षस ऋषियों के यज्ञ को हाड़, माँस, विष्ठा, मूत्रादिक के द्वारा अपवित्र करते थे । इस कथानक का प्रचार 13वीं से 18वीं शताब्दी तक भाटों के द्वारा खूब होता रहा । नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा । इन चारों वंशों के राजपूतों ने इस मत को अपनी विशुद्धता की पुष्टि करने के लिए अपना लिया । कर्नल टॉड ने भी इस अग्निवंशीय मत को अपने मत 'विदेश वंशीय राजपूतों' की पुष्टि में मान्यता दी । क्रूक ने अग्निवंशीय कथानक को इनका विदेशियों से शुद्ध करने का आयोजन बताते हुए उसकी प्रामाणिकता पर बल दिया । परन्तु यदि गहराई से 'अग्निवंशीय मत' का विश्लेषण किया जाय तो सिद्ध हो जाता है कि यह मत केवल मात्र कवियों की मानसिक कल्पना का फल है । कोई इतिहास का विद्यार्थी यह मानने के लिए उद्यत नहीं हो सकता कि अग्नि से भी योद्धाओं का सृजन होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशों की उद्भूति से यह अभिव्यक्ति करता है कि जब विदेश सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने अपने आपको शत्रुओं से मुकाबला करने को सजग कर दिया । यदि चन्दबरदाई वास्तव में इन वंशों को अग्निवंशीय मानता होता तो वह अपने ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से राजपूतों की 36 शाखाओं को सूर्य, चन्द्र और यादव वंशीय न लिखता । छठी शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों की सामग्री हमें यह प्रमाणित करने में सहायता पहुँचाती है । कि इन चार वंशों में से तीन वंश सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय थे । उदाहरणार्थ , प्रतिहार जिन्होंने कन्नौज में अपने राज्य को स्थापित किया था सूर्यवंशी थे । राजशेखर ने महेन्द्रपाल को रघुकल तिलक की उपाधि से अलंकृत किया है । इसी तरह कई दान - पत्रों से सोलंकियों का चन्द्रवंशी होना प्रमाणित होता है । बिहारी प्रस्तर अभिलेख में चालुक्यों की उत्पत्ति चन्द्रवंशीय बतायी गयी है । हर्ष अभिलेख, पृथ्वीराज विजय काव्य तथा हम्मीर महाकाव्य से चौहान सूर्यवंशीय क्षत्रिय की सन्तान हैं । परमारों के सम्बन्ध में जहां-तहाँ उल्लेख मिलता है जिनमें उदयपुर
प्रशस्ति, पिंगल सूत्रवृत्ति, तेजपाल अभिलेख आदि मख्य हैं, वहाँ अग्निवंशीय नहीं बताया गया है । उनके लिए 'बृह्म-क्षत्रकुलीन' शब्द का प्रयोग किया है । वास्तव में 'अग्निवंशीय कथानक' पर विश्वास करना व्यर्थ है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है । इस कथानक का स्वरूप डिंगल साहित्य की शैली पर निर्मित होने से ऐतिहासिक तथ्य से रिक्त है । यह बात सर्वमान्य है कि रासो साहित्य में सभी अंश मौलिक नहीं वरन् पिछले समय से जोडे हए हैं । अतएव सारे कथानक का मूल पाठ से मिलावट करना अस्वाभाविक नहीं । डा. ओझा भी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि ऐसी दशा में 'पृथ्वीराज रासो' का सहारा लेकर जो विद्वान इन चार राजपूत वंशों को अग्निवंशीय मानते हैं । यह उनको हठधर्मी है । वैद्य ने 'अग्निकुल मत' को कवि - कल्पना बताते हुए लिखा है कि अपने वंश को प्रतिष्ठा का प्रतीक समझकर राजपूतों ने भी इसकी सत्यता पर कभी सन्देह प्रकट नहीं किया । डाॅ. दशरथ शर्मा भी इस मत के सम्बन्ध में लिखते हैं कि यह भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र है । डा . ईश्वरीप्रसाद भी इसे तथ्य से रहित बताते हुए लिखते हैं कि यह ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है ।
• सूर्य और चन्द्रवंशीय मत •
जहाँ 'अग्निकुल' मत खण्डन डा. ओझा ने किया है वहाँ वे राजपूतों को सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय बताते हैं । अपने मत की पुष्टि में उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों के प्रमाण दिये हैं । उदाहरण के लिए, 1028 वि. (971 ई.) के नाथ अभिलेख में , 1034 वि. (977 ई.) के आटपुर लेख में , 1342 वि. (1285 ई) के आबू के शिलालेख में तथा 1485 वि. ( 1428 ई.) के श्रृंगीऋषि के लेख में गुहिलवंशीय राजपूतों को रघुकुल से उत्पन्न बताया गया है । इसी तरह से पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य, सुजान चरित्र ने चौहानों को क्षत्रिय माना है । वंशावली लेखकों ने राठौड़ों को सूर्यवंशीय, यादवों, भाटियों और चन्द्रावती के चौहानों को चन्द्रवंशीय निर्दिष्ट किया है । इन सब आधारों से उनकी मान्यता है कि “राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के ही वंशधर हैं और जो लेखक ऐसा नहीं मानते उनका कथन प्रमाणशून्य है ।" परन्तु इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक है, क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बताते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशीय राजा था । बल्कि सूर्य और चन्द्रवंशीय समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का सम्बन्ध इन्द्र, पद्मनाभ, विष्णु आदि से बताते हुए एक काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है । इससे स्पष्ट है कि जो लेखक राजपूतों को चन्द्रवंशीय या सूर्यवंशीय मानते हैं वे भी इनकी उत्पति के विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाये है । अलबत्ता इस मत का एक ही उपयोग हमें
दिखायी देता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का मुकाबला सफलतापूर्वक किया आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी ।
• विदेशी वंश का मत •
इन दोनों मतों के विपरीत राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सीथियन बताया है । इसके प्रमाणों में उनके बहुत-से प्रचलित रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से साम्यता रखते हैं, उल्लेख किया है । ऐसे रिवाजों में सूर्य की पूजा, सती-प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों का पूजन, तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से मिलना आदि हैं । डाॅ . स्मिथ ने भी राजपूतों के इस विदेशी वंशज होने के मत को स्वीकार किया है और बताया है कि शक और यूची की भाँति गुर्जर और हूण जातियाँ भी शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिलकर हिन्दू बन गयीं । उनमें से जिन कुटुम्बों या शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार प्राप्त कर लिया वे तत्काल क्षत्रिय या राजवर्ण में मिला लिये गये । वे फिर लिखते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि परिहार और उत्तर के कई दूसरे प्रसिद्ध राजपूत वंश इन्हीं जंगली समुदायों से निकलते हैं । जो ई. सं. की पाँचवीं या छठी शताब्दी में भारतवर्ष में आये थे । इन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और इन्हीं से चन्देल राठौड़ गहरवाड आदि प्रसिद्ध राजपूत वंश निकले और उन्हीं ने अपनी उत्पत्ति को प्रतिष्ठित बताने के लिए उसे सूर्य-चन्द्र से जा मिलाया । कर्नल टॉड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का खण्डन करते हुए यह दलील दी है कि चूँकि वैदिक क्षत्रियों और मध्यकालीन राजपूतों के समय में इतना अन्तर है कि दोनों के सम्बन्ध को सच्चे वंश-क्रम से नहीं जोड़ा जा सकता, इसलिए उनकी मान्यता यह है कि जो शक और सीथियन तथा हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश-रक्षक के रूप में सम्मान प्राप्त कर चुके थे । उन्हें महाभारत तथा रामायणकालीन क्षत्रियों से सम्बन्धित कर दिया गया और उन्हें सूर्य तथा चन्द्रवंशीय मान लिया गया ।
इस विदेशी वंशीय मत को कुछ स्थानीय विद्वानों ने रस्मो-रिवाज तथा समसामयिक ऐतिहासिक साहित्य पर अमान्य ठहराने का प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वानों में डाॅ. ओझा प्रमुख हैं । उनका कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मो-रिवाजों में जो साम्यता कर्नल टॉड ने बतायी है वह साम्यता विदेशियों से राजपूतों ने उद्धृत नहीं की है, वरन् उनकी साम्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है । अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाज व परम्पराओं का उल्लेख साम्यता बताने के लिए कर्नल टॉड ने किया है वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं । उनको इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार है । इसी तरह से डाॅ. ओझा ने अभिलेखों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दूसरी शताब्दी से सातवीं तक क्षत्रियों के उल्लेख मिलते हैं और मौर्य तथा नन्दों के पतन के बाद भी क्षत्रिय होना प्रमाणित है । कटक के पास उदयगिरि के वि. सं. पूर्व की दूसरी शताब्दी के राजा खारवेल के लेख में कुसंब जाति के क्षत्रियों का उल्लेख है । इसी तरह नासिक के पास की पाण्डव गुफा के वि. सं. की दूसरी शताब्दी के लेख में उत्तमभाद्र क्षत्रियों का वर्णन मिलता है । गिरिनार पर्वत के 150 ई. के पीछे के लेख में यौधेयों को स्पष्ट रूप स क्षत्रिय लिखा है । वि. सं. तीसरी शताब्दी के आस - पास जग्गयपेट तथा नागार्जुनी कोंड के लेखों में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का नामोल्लेख है ।
वैसे तो जो प्रमाण डाॅ. ओझा ने रिवाजों की मान्यता का खण्डन करने के लिये दिये हैं वे कर्नल टॉड की कल्पना को निराधार प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं । इसी तरह पण्डितजी का नन्द-वंश के पहले और बाद में क्षत्रियों का होना भी सिद्ध करना प्रशंसनीय है । फिर भी इनकी दलीलों में वे यह नहीं ठीक-ठीक सिद्ध कर पाये हैं कि राजपूत, जो छठी व सातवीं शताब्दी से एक जाति के रूप में भारतीय राजनीतिक जीवन में आये उनका प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्ध था कि विदेशियों से, जिन्होंने निश्चित रूप से हिन्दू संस्कृति को अपना लिया था अब महत्त्व का प्रश्न यह रह जाता है कि दूसरी शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी तक आने वाले विदेशी अन्ततोगत्वा कहाँ गये ? इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ ।
• गुर्जर वंश का मत •
राजपूता को गुर्जर मानकर, डाॅ. भण्डारकर ने विदेशी वंशीय मत को और बल दिया है । उनको मान्यता है कि गुर्जर जाति जो भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम विभाग में फैली हुई था उसका श्वेत-हूणों के साथ निकट सम्बन्ध था और ये दोनों जातियाँ विदेशी थीं । इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है । इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान भी गूजर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गूजर कहा गया है । राष्ट्रकूट और अरब यात्री भी प्रतिहारों को गूजर ही बताते हैं । जहाँ तक चौहानों का विदेशियों से उद्गम है , उनकी मान्यता है कि सेसेरियन मुद्राओं पर 'वासुदेव वहमन' जो अंकित मिलता है , वह 'वासुदेव चहमन' है ।
जो प्रमाण डाॅ. भण्डारकर ने राजपूतों का उद्गम गुर्जरों से सिद्ध करने के पक्ष में दिये हैं । उनसे वैद्य सहमत नहीं हैं । इनकी मान्यता है कि प्रतिहारों को जो गुर्जर कहा गया है वह जाति की संज्ञा से नहीं, वरन् उनका देश विशेष — गुजरात पर अधिकार होने के कारण है । राष्ट्रकूटों ने तथा अरब यात्रियों ने भी उन्हें भूमि विशेष से सम्बन्धित होने के कारण गुर्जर कहा है । इसी तरह डाॅ. दशरथ शर्मा मानते हैं कि सेसेरियन मुद्रा वाले 'वासुदेव वहमन' तथा 'वासूदेव चौहान' दोनों समकालीन नहीं हैं । ऐसी स्थिति में चौहानों को विदेशी नहीं ठहराया जा सकता है ।
• ब्राह्मणवंशीय मत •
डाॅ. भण्डारकर ने जहाँ गुर्जर मत को विदेशी आधार पर स्थिर किया है , वहाँ यह भी प्रतिपादन किया है कि कुछ राजपूत वंश धार्मिक वर्ग से भी सम्बन्धित थे जो विदेशी थे । इस मत की पुष्टि के लिए वे बिजोलिया-शिलालेख को प्रस्तुत करते हैं जिसमें वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है । उनके अनुसार राजशेखर ब्राह्मण का विवाह अवन्ति सुन्दरी के साथ होना चौहानों का ब्राह्मण वंश से उत्पत्ति होने का एक अकाट्य प्रमाण है । कायमखाँ रासो में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतायी गयी है जो जमदग्नि गोत्र से था । इस कथन की पुष्टि सुण्डा तथा आबू अभिलेख से भी होती है । इसी तरह डाॅ. भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी ।
डाॅ. ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हैं और लिखते हैं कि जो भ्रान्ति डाॅ. भण्डारकर को राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति के सम्बन्ध में हुई है वह 'द्विज' ,'ब्रह्मक्षत्री', 'विप्र ', आदि शब्दों से हुई है जिनका प्रयोग राजपूतों के लिए अभिलेखों में हुआ है, परन्तु इनकी मान्यता है कि इन शब्दों का प्रयोग क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए ।
वैसे तो डाॅ. भण्डारकर का राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी ब्राह्मणवंशीय मत राजवंशों के लिए लागू किया जाना ठीक नहीं दिखायी देता, परन्तु इसके पीछे बल अवश्य है । मेरी कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, द्वितीय पट्टिका की खोज और उसके पद्यांशों का सम्पादन इस निर्णय पर पहँचाते हैं कि बापा रावल, जो गुहिल वंशीय थे, आनन्दपुर के ब्राह्मण वंश से थे और जिन्होंने नागदा में आकर हारीत ऋषि की अनुकम्पा से शासक की प्रतिष्ठा को प्राप्त किया । बापा के पीछे भर्तृभट्ट को भी चाटसू अभिलेख में 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिए कहा है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रियत्व प्राप्त हुआ था । चाहे हम 'ब्रह्मक्षत्री' तथा 'द्विज' शब्दों को ब्राह्मण या क्षत्री के सन्दर्भ में काम में लायें, परन्तु वस्तुतः 'विप्र' शब्द का उपयोग पुराने लेखों में, जो इन राजपूत वंशों के लिए किया गया है, उनका ब्राह्मण होना सिद्ध करता है । भारतवर्ष का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों को उपस्थित करता है जहाँ प्रारम्भ में ब्राह्मण होते हुए कई राजवंश क्षत्रिय पद को प्राप्त हुए । ऐसे वंशों में काण्व तथा शुंग वंश मुख्य हैं ।
सारांश यह है कि जिस तरह शक, पल्हव, हूण आदि विदेशी यहाँ आये और जिस तरह उनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसका साक्षी इतिहास है । ये लोग लाखों की संख्या में थे । पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना भी प्रामाणिक है । ऐसी अवस्था में उनका किसी-न-किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था । उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया । इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी जो यकायक क्षात्र धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गयी और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया । यह स्थिति सामाजिक उथल-पथल की पोषक है । हरियादेवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशीय अल्लट के साथ होना जो कि सन् 1034 के शक्ति कुमार के शिलालेख से स्पष्ट है, इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है । जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ में आ गयी तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रियों की संज्ञा दी । उनकी राजनीतिक स्थिति ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे । इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि सम्भवतः सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो ।
इस काल की सबसे महत्वपूर्ण घटना युद्धप्रिय राजपूत जाति का उदय एवं राजस्थान राजपूत राज्यों की स्थापना है । गुप्त साम्राज्य के पतन के बाद केन्द्रीय शक्ति का अभाव उत्तरी भारत में एक प्रकार की अव्यवस्था का प्रवर्तक बना । राजस्थान की गणतन्त्रीय जातियों ने (जिनमें मालव, यौधेय, शिवि आदि थी) जिन्होंने गुप्ताओं की अर्द्ध-अधीनता स्वीकार कर ली थी, इस अव्यवस्था से लाभ उठाकर फिर स्वतन्त्र हो गये और परस्पर विरोधी भावना से अपने अपने अधिकार क्षेत्र को बढ़ाने में लग गये । परन्तु इस पारस्परिक विद्वेष की प्रवृत्ति तथा-आचरण ने इन्हें निर्बल बना दिया । ऐसी अवस्था में हूणों के विध्वंसकारी आक्रमण आरम्म हो गये । इनके एक नेता तोरमन ने मालवा तक अपना प्रभाव स्थापित कर लिया । उसके पुत्र मिहिरकुल ने तो प्रलयकारी आक्रमण से राजस्थान को बड़ी क्षति पहुँचायी और बिखरी हुई। गणतन्त्री व्यवस्था को जर्जरित कर दिया ।
भाग्यवश मालवा के शासक यशोवर्मन ने, जिसकी शक्ति एक सम्मान प्राप्त कर चुकी थी, इन हूणों को लगभग 532 ई. में, परास्त करने में सफलता प्राप्त की । उसने मालवा तथा राजस्थान से हूणों को दबाया और उन्हें शान्त नागरिक के रूप में बसने को बाध्य किया । कुछ समय के लिए यशोवर्मन (यशोधर्मन) राजस्थान में सुख और सम्पदा लाने में सहायक सिद्ध हुआ ।
परन्तु यह शान्ति क्षणिक थी । यशोवर्मन की मृत्यु के बाद फिर अव्यवस्था का दौर आरम्भ हुआ । इधर तो राजस्थान में यशोवर्मन के अधिकारी जो राजस्थानी कहलाते थे, अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र होने की चेष्टा कर रहे थे और उधर अव्यवस्थित गणतन्त्र की बिखरी। हई जातियाँ, जो अलग-अलग समूह में रहती थीं, फिर से अपने प्राबल्य के लिए संघर्षशील हो गयीं । किसी केन्द्रीय शक्ति का न होना इनकी प्रवृत्ति के लिए सहायक बन गया ।
जब राजस्थान इस स्थिति से गुजर रहा था तो उत्तरी भारत की शक्ति (सातवीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में) पुष्पभूति शासकों के हाथ में थी, जिनमें हर्षवर्धन प्रमुख था । इसके तत्त्वावधान में राजस्थान में फिर से एक शान्ति की लहर आयी, परन्तु जो बिखरी हुई अवस्था यहाँ पैदा हो गयी थी वह न सुधर सकी । हर्ष की मृत्यु (648 ई.) के बाद तो इस शक्ति के विभाजन ने और बल पकड़ लिया ।
इन राजनीतिक उथल-पुथल के सन्दर्भ में एक सामाजिक परिवर्तन भी उसी समय से आरम्भ हो गया था । राजस्थान में, जैसा कि हमने ऊपर पढ़ा, विदेशी जातियों के जत्थे दूसरी
शताब्दी ईसा पूर्व से छठी शताब्दी तक आते रहे और यहाँ के स्थानीय समूह उनका मुकाबला करते रहे । परन्तु कालान्तर में इन विदेशी आक्रमणकारियों की पराजय हई । कई मारे गये और कई यहाँ बस गये । जो शक या हूण यहाँ बचे रहे उनका यहाँ की शस्त्रोपजीवी जातियों साथ निकट सम्पर्क स्थापित होता गया और अन्ततोगत्वा छठी शताब्दी तक स्थानीय और विदेशी योद्धाओं का भेद जाता रहा ।
इस प्रकार के सामंजस्य में जैन धर्म ने भी काफी जोर दिया हो ऐसा दिखायी पड़ता है, क्योंकि जैन धर्म में भारतीय अथवा अभारतीय का कोई भेद न था । सम्भवतः बचे हुए शक और हूणों को स्थानीय समुदाय में मिलाने में जैन धर्म ने अपना प्रयत्न अवश्य किया हो । इसका प्रमाण हरिभद्र सूरी द्वारा भीनमाल में कई विदेशियों को यहाँ के समाज में मिलाया जाना प्रसिद्ध है । हिन्दू धर्म भी इस युग तक विदेशियों को भारतीय समाज में सम्मिलित करने में अनुदार नहीं था । आबू के यज्ञ से नयी जातियों का उद्भव , जिसका विस्तार से आगे वर्णन किया जायेगा इस स्थिति को प्रमाणित करता है । हिन्दू तथा जैन धर्म में दीक्षित इन विदेशियों की एक नयी जाति बन गयी जिसने अपने यद्धप्रियता आदि गुणों के साथ स्थानीय धर्म और परम्पराओं के प्रति अपनी निष्ठा जोड़ दी । इस प्रकार जो विदेशी जातियों पहले आक्रमणकारी के रूप में राजस्थान को अस्त-व्यस्त करने में सक्रिय रही थीं वे अब नयी व्यवस्था की जन्मदाता बनीं । जहाँ-जहाँ वे बसीं वहाँ-वहाँ स्थानीय जातियों से आचार - विचार तक जीविका के विचार से उनमें साम्यता हो गयी जिसके फलस्वरूप इनके कुलों की अपनी-अपनी सीमाएं बन गयीं, उनका अपना संगठन बन गया और अपनी प्रवृत्ति के अनुकूल उनमें एक राजनीतिक व्यवस्था भी उत्पन्न हो गयी । धार्मिक पुरोहितों ने उन्हें हिन्दू तथा जैन धर्म के संरक्षक पाकर क्षत्रियों के रूप में ग्रहण कर लिया और इन समूहों के नेताओं तथा अनुयायियों को 'राजपुत्र' की संज्ञा दी । इस प्रकार राजपुत्र (राजपूत) और क्षत्रिय समानार्थक समझे जाने लगे ।
• राजपूतों का अधिवासन •
यह समन्वय सामाजिक स्तर तक ही सीमित नहीं रहा । जिन- जिन समहों ने मैत्री व एक-दूसरे के प्रभाव को स्वीकार कर लिया था उन्होंने सहयोग से आस-पास के क्षेत्र में अपना राजनीतिक प्रभाव भी स्थापित करना प्रारम्भ किया । लगभग छठी शताब्दी से इन अधिवासियों के द्वारा सत्ता संस्थापन के उल्लेख मिलते हैं और ये भी प्रमाण उपलब्ध होते हैं कि गुजरात पंजाब तथा गंगा-यमुना के मैदानी भाग से उन दिनों में कई राजपूतों के समदाय राजस्थान में आये और उन्होंने भी यहीं के अधिवासियों के सहयोग से अपनी सत्ता स्थापन करने में सफलता प्राप्त की । इन्होंने पहले दक्षिण, दक्षिण-पश्चिमी, दक्षिण-पूर्वी, उत्तर-पश्चिमी और उत्तर-पूर्वी भाग में अपने अधिवासों की स्थापना की और कुछ एक भीतरी भागों में भी जाकर बस गये । इस तरह राजपूतों के पृथक-पृथक सत्ता क्षेत्र की इकाइयों में सम्पूर्ण राजस्थान बँट गया । इस गतिविधि में उनको बड़ी कठिनता का सामना करना पड़ा और इनमें उन्हें सैकड़ों वर्ष लग गये । इस तरह 13वीं शताब्दी तक उनके अधिकार में पर्याप्त भू-भाग आ गया ।
इतना लम्बा समय जो इनका अपने अधिवासन में लग गया उसके प्रमख दो कारण दिखायी देते हैं : प्रथम कारण तो यह था कि उनको कई जंगली, पठारी, पहाडी, नदी - नाले व रेगिस्तानी भागों को पार कर अपने लिये उपयुक्त अधिकार क्षेत्र को ढूंढना पड़ा था जो सहज काम न था । द्वितीय महत्त्वपूर्ण कारण यह भी था कि उन्हें पद-पद पर स्थानीय जातियों, जिनमें भील, मीणा, मेव, मवाती तथा बाह्मण जातियों के समूह थे, टक्कर लेनी पड़ी थी । ये जातियाँ जंगल व पहाडी भागों में अपनी बस्तियाँ बसाकर पहले से ही रहती थी और वास्तविक अर्थ में स्वतन्त्र थीं । इन जातियों का संघर्ष राजपूतों के साथ कब-कब हुआ और कैसे हुआ इसके समसामयिक प्रमाण तो नहीं हैं, परन्तु अनुश्रुतियों, कथानकों और वंशावलियों के आधार से प्रमाणित होता है कि इन राजपूतों और भील, मेव, मीणा आदि जाति का जगह-जगह संघर्ष होता रहा । कहीं उनकी बस्तियाँ नष्ट की गयीं, कहीं उनको दबाकर अर्द्ध-आश्रित के रूप में रखा और कहीं उनसे यदा-कदा झगड़ा चलता रहा । जेता, कोट्या, डूँगरिया भील और आमेर के मीणों और राजपूत वंशों के संघर्ष इस कथन के साक्षी हैं । यह अधिवासन एक लम्बे युग की कहानी है । इस काल में राजपूतों ने अपने अध्यवसाय और शौर्य का अच्छा परिचय दिया ।
इन प्रारम्भिक राजपूत कुलों में जिन्होंने राजस्थान में अपने- अपने राज्य स्थापित कर लिये थे, मारवाड के प्रतिहार और राठौड, मेवाड के गहिल, सांभर के चौहान, चित्तौड के मौर्य, भीनमाल तथा आबू के चावडा, आम्बेर के कछवाहा, जैसलमेर के भाटी आदि प्रमुख हैं । शिलालेखों के आधार से हम जानते हैं कि छठी शताब्दी में मण्डोर के आस-पास प्रतिहारों का राज्य था और फिर वही राज्य आगे चलकर राठौड़ों को प्राप्त हुआ । इसी समय के आस-पास सांभर में चौहान, राज्य की स्थापना हुई और धीरे-धीरे वह राज्य बहुत शक्तिशाली बन गया । पाँचवीं या छठवीं शताब्दी में मेवाड़ और आस-पास के भागों में गुहिलों का शासन स्थापित हो गया । 10वीं शताब्दी में अर्थूणा तथा आबू में परमार शक्तिशाली बन गये । बारहवीं शताब्दी तथा तेरहवीं शताब्दी के आस-पास तक जालौर, रणथम्भौर और हाड़ौती में चौहानों ने पुन: अपनी शक्ति का संगठन किया और उसका कहीं-कहीं विघटन भी होता रहा ।
• राजपूतों की उत्पत्ति •
इन राजपूत कुलों का अधिवासन राजस्थान के सन्दर्भ में बड़े महत्त्व का है । अतएव यह आवश्यक हो जाता है कि हम उनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में भी कुछ विवेचन करें । ज्यों-ज्यों इन अधिवासियों की प्राधान्यता स्वीकृत होती गयी त्यों-त्यों धर्माधिकारियों, विद्वानों और भाटों ने उनके वंश की पवित्रता स्थापित करने के लिए उनका उद्भव हिन्दू देवताओं- सूर्य, चन्द्र तथा अग्नि आदि से जोड़ दिया । ऐसा करने का सीधा यह अभिप्राय था कि राजपूत विशद्ध क्षत्रिय है और उनका सम्बन्ध देवताओं से है । परन्तु इस प्रकार की दैवी उत्पत्ति में कई यूरोपियन तथा स्थानीय विद्वान सन्देह प्रकट करते हैं । उनकी इस सम्बन्ध में मान्यता है कि राजपूत जाति प्राचीन
क्षत्रिय नहीं परन्तु उतर-पश्चिम के आने वाले सीथियन, शक, यूची आदि को सन्तान हैं । राजस्थान के प्रसिद्ध इतिहासकार टॉड ने तथा उनके ग्रन्थ के सम्पादक क्रुक ने इन्हें सीथियन होना बताया है । डा. भण्डारकर ने भी इसी मान्यता को अपने तकों पर कसकर प्रतिपादित किया है । स्मिथ ने कुछ राजपूत कुलों को स्थानीय और कुछ एक को सीथियन प्रमाणित किया । वैद्य ने यह सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि राजपूत विशुद्ध क्षत्रियों से उत्पन्न हुए थे । डा. हीराचन्द गौरीशंकर ओझा ने इन दोनों मतों के बीच अपना मत स्थिर करते हुए लिखा है कि राजपूतों की नसों में क्षत्रिय रक्त प्रवाहित था । परन्तु क्षत्रिय जाति में एल, इक्ष्वाकु ही नहीं वरन् कुशाण, शक आदि अनार्य जातियाँ भी सम्मिलित थीं । अतएव राजपूतों को क्षत्रिय मानने अथवा न मानने के सम्बन्ध में अनेक मत बन गये हैं जिनका वर्गीकरण हम अग्निवंशी, सूर्य-चन्द्र वंशी, विदेश वंशीय तथा गुर्जर और ब्राह्मण वंशीय शीर्षक के अन्तर्गत करेंगे और देखेंगे कि प्रत्येक में तथ्यातथ्य कितना है ।
• अग्निवंशीय •
राजपूतों का विशुद्ध जाति से उत्पन्न होने के मत को बल देने के लिए उनको अग्निवंशीय बताया गया है । इस मत का प्रथम सूत्रपात चन्दबरदाई के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'पृथ्वीराज रासो' से होता है । उसका लिखना है कि राजपूतों के चार वंश-प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान वशिष्ठ के यज्ञ कुण्ड से राक्षसों के संहार के लिए उत्पन्न किये गये । ऐसा करना इसलिए आवश्यक हो गया कि वे राक्षस ऋषियों के यज्ञ को हाड़, माँस, विष्ठा, मूत्रादिक के द्वारा अपवित्र करते थे । इस कथानक का प्रचार 13वीं से 18वीं शताब्दी तक भाटों के द्वारा खूब होता रहा । नेणसी और सूर्यमल्ल मिश्रण ने इस आधार को लेकर उसको और बढ़ावे के साथ लिखा । इन चारों वंशों के राजपूतों ने इस मत को अपनी विशुद्धता की पुष्टि करने के लिए अपना लिया । कर्नल टॉड ने भी इस अग्निवंशीय मत को अपने मत 'विदेश वंशीय राजपूतों' की पुष्टि में मान्यता दी । क्रूक ने अग्निवंशीय कथानक को इनका विदेशियों से शुद्ध करने का आयोजन बताते हुए उसकी प्रामाणिकता पर बल दिया । परन्तु यदि गहराई से 'अग्निवंशीय मत' का विश्लेषण किया जाय तो सिद्ध हो जाता है कि यह मत केवल मात्र कवियों की मानसिक कल्पना का फल है । कोई इतिहास का विद्यार्थी यह मानने के लिए उद्यत नहीं हो सकता कि अग्नि से भी योद्धाओं का सृजन होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि चन्दबरदाई वशिष्ठ द्वारा अग्नि से इन वंशों की उद्भूति से यह अभिव्यक्ति करता है कि जब विदेश सत्ता से संघर्ष करने की आवश्यकता हुई तो इन चार वंशों के राजपूतों ने अपने आपको शत्रुओं से मुकाबला करने को सजग कर दिया । यदि चन्दबरदाई वास्तव में इन वंशों को अग्निवंशीय मानता होता तो वह अपने ग्रन्थ में स्पष्ट रूप से राजपूतों की 36 शाखाओं को सूर्य, चन्द्र और यादव वंशीय न लिखता । छठी शताब्दी से 16वीं शताब्दी के अभिलेखों तथा साहित्यिक ग्रन्थों की सामग्री हमें यह प्रमाणित करने में सहायता पहुँचाती है । कि इन चार वंशों में से तीन वंश सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय थे । उदाहरणार्थ , प्रतिहार जिन्होंने कन्नौज में अपने राज्य को स्थापित किया था सूर्यवंशी थे । राजशेखर ने महेन्द्रपाल को रघुकल तिलक की उपाधि से अलंकृत किया है । इसी तरह कई दान - पत्रों से सोलंकियों का चन्द्रवंशी होना प्रमाणित होता है । बिहारी प्रस्तर अभिलेख में चालुक्यों की उत्पत्ति चन्द्रवंशीय बतायी गयी है । हर्ष अभिलेख, पृथ्वीराज विजय काव्य तथा हम्मीर महाकाव्य से चौहान सूर्यवंशीय क्षत्रिय की सन्तान हैं । परमारों के सम्बन्ध में जहां-तहाँ उल्लेख मिलता है जिनमें उदयपुर
प्रशस्ति, पिंगल सूत्रवृत्ति, तेजपाल अभिलेख आदि मख्य हैं, वहाँ अग्निवंशीय नहीं बताया गया है । उनके लिए 'बृह्म-क्षत्रकुलीन' शब्द का प्रयोग किया है । वास्तव में 'अग्निवंशीय कथानक' पर विश्वास करना व्यर्थ है क्योंकि सम्पूर्ण कथानक बनावटी व अव्यावहारिक है । इस कथानक का स्वरूप डिंगल साहित्य की शैली पर निर्मित होने से ऐतिहासिक तथ्य से रिक्त है । यह बात सर्वमान्य है कि रासो साहित्य में सभी अंश मौलिक नहीं वरन् पिछले समय से जोडे हए हैं । अतएव सारे कथानक का मूल पाठ से मिलावट करना अस्वाभाविक नहीं । डा. ओझा भी इस सम्बन्ध में लिखते हैं कि ऐसी दशा में 'पृथ्वीराज रासो' का सहारा लेकर जो विद्वान इन चार राजपूत वंशों को अग्निवंशीय मानते हैं । यह उनको हठधर्मी है । वैद्य ने 'अग्निकुल मत' को कवि - कल्पना बताते हुए लिखा है कि अपने वंश को प्रतिष्ठा का प्रतीक समझकर राजपूतों ने भी इसकी सत्यता पर कभी सन्देह प्रकट नहीं किया । डाॅ. दशरथ शर्मा भी इस मत के सम्बन्ध में लिखते हैं कि यह भाटों की कल्पना की एक उपज मात्र है । डा . ईश्वरीप्रसाद भी इसे तथ्य से रहित बताते हुए लिखते हैं कि यह ब्राह्मणों का एक प्रतिष्ठित जाति की उत्पत्ति की महत्ता निर्धारित करने का प्रयास मात्र है ।
• सूर्य और चन्द्रवंशीय मत •
जहाँ 'अग्निकुल' मत खण्डन डा. ओझा ने किया है वहाँ वे राजपूतों को सूर्यवंशीय और चन्द्रवंशीय बताते हैं । अपने मत की पुष्टि में उन्होंने कई शिलालेखों और साहित्यिक ग्रन्थों के प्रमाण दिये हैं । उदाहरण के लिए, 1028 वि. (971 ई.) के नाथ अभिलेख में , 1034 वि. (977 ई.) के आटपुर लेख में , 1342 वि. (1285 ई) के आबू के शिलालेख में तथा 1485 वि. ( 1428 ई.) के श्रृंगीऋषि के लेख में गुहिलवंशीय राजपूतों को रघुकुल से उत्पन्न बताया गया है । इसी तरह से पृथ्वीराज विजय, हम्मीर महाकाव्य, सुजान चरित्र ने चौहानों को क्षत्रिय माना है । वंशावली लेखकों ने राठौड़ों को सूर्यवंशीय, यादवों, भाटियों और चन्द्रावती के चौहानों को चन्द्रवंशीय निर्दिष्ट किया है । इन सब आधारों से उनकी मान्यता है कि “राजपूत प्राचीन क्षत्रियों के ही वंशधर हैं और जो लेखक ऐसा नहीं मानते उनका कथन प्रमाणशून्य है ।" परन्तु इस मत को सभी राजपूतों की उत्पत्ति के लिए स्वीकार करना आपत्तिजनक है, क्योंकि राजपूतों को सूर्यवंशी बताते हुए उनका वंशक्रम इक्ष्वाकु से जोड़ दिया गया है जो प्रथम सूर्यवंशीय राजा था । बल्कि सूर्य और चन्द्रवंशीय समर्थक भाटों ने तो राजपूतों का सम्बन्ध इन्द्र, पद्मनाभ, विष्णु आदि से बताते हुए एक काल्पनिक वंशक्रम बना दिया है । इससे स्पष्ट है कि जो लेखक राजपूतों को चन्द्रवंशीय या सूर्यवंशीय मानते हैं वे भी इनकी उत्पति के विषय में किसी निश्चय पर नहीं पहुंच पाये है । अलबत्ता इस मत का एक ही उपयोग हमें
दिखायी देता है कि ग्यारहवीं शताब्दी से इन राजपूतों का क्षत्रियत्व स्वीकार कर लिया गया, क्योंकि इन्होंने क्षात्र धर्म के अनुसार विदेशी आक्रमणों का मुकाबला सफलतापूर्वक किया आगे चलकर यह मत लोकप्रिय हो गया और तभी से इसको मान्यता प्रदान की जाने लगी ।
• विदेशी वंश का मत •
इन दोनों मतों के विपरीत राजपूताना के प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टॉड ने राजपूतों को शक और सीथियन बताया है । इसके प्रमाणों में उनके बहुत-से प्रचलित रीति-रिवाजों का, जो शक जाति के रिवाजों से साम्यता रखते हैं, उल्लेख किया है । ऐसे रिवाजों में सूर्य की पूजा, सती-प्रथा, अश्वमेध यज्ञ, मद्यपान, शस्त्रों और घोड़ों का पूजन, तातारी और शकों की पुरानी कथाओं का पुराणों की कथाओं से मिलना आदि हैं । डाॅ . स्मिथ ने भी राजपूतों के इस विदेशी वंशज होने के मत को स्वीकार किया है और बताया है कि शक और यूची की भाँति गुर्जर और हूण जातियाँ भी शीघ्र ही हिन्दू धर्म में मिलकर हिन्दू बन गयीं । उनमें से जिन कुटुम्बों या शाखाओं ने कुछ भूमि पर अधिकार प्राप्त कर लिया वे तत्काल क्षत्रिय या राजवर्ण में मिला लिये गये । वे फिर लिखते हैं कि इसमें कोई सन्देह नहीं कि परिहार और उत्तर के कई दूसरे प्रसिद्ध राजपूत वंश इन्हीं जंगली समुदायों से निकलते हैं । जो ई. सं. की पाँचवीं या छठी शताब्दी में भारतवर्ष में आये थे । इन्होंने हिन्दू धर्म स्वीकार कर लिया और इन्हीं से चन्देल राठौड़ गहरवाड आदि प्रसिद्ध राजपूत वंश निकले और उन्हीं ने अपनी उत्पत्ति को प्रतिष्ठित बताने के लिए उसे सूर्य-चन्द्र से जा मिलाया । कर्नल टॉड की पुस्तक के सम्पादक विलियम क्रुक ने भी इसी मत का खण्डन करते हुए यह दलील दी है कि चूँकि वैदिक क्षत्रियों और मध्यकालीन राजपूतों के समय में इतना अन्तर है कि दोनों के सम्बन्ध को सच्चे वंश-क्रम से नहीं जोड़ा जा सकता, इसलिए उनकी मान्यता यह है कि जो शक और सीथियन तथा हूण आदि विदेशी जातियाँ हिन्दू समाज में स्थान पा चुके थे और देश-रक्षक के रूप में सम्मान प्राप्त कर चुके थे । उन्हें महाभारत तथा रामायणकालीन क्षत्रियों से सम्बन्धित कर दिया गया और उन्हें सूर्य तथा चन्द्रवंशीय मान लिया गया ।
इस विदेशी वंशीय मत को कुछ स्थानीय विद्वानों ने रस्मो-रिवाज तथा समसामयिक ऐतिहासिक साहित्य पर अमान्य ठहराने का प्रयत्न किया है । ऐसे विद्वानों में डाॅ. ओझा प्रमुख हैं । उनका कहना है कि राजपूतों तथा विदेशियों के रस्मो-रिवाजों में जो साम्यता कर्नल टॉड ने बतायी है वह साम्यता विदेशियों से राजपूतों ने उद्धृत नहीं की है, वरन् उनकी साम्यता वैदिक तथा पौराणिक समाज और संस्कृति से की जा सकती है । अतएव उनका कहना है कि शक, कुषाण या हूणों के जिन-जिन रस्मो-रिवाज व परम्पराओं का उल्लेख साम्यता बताने के लिए कर्नल टॉड ने किया है वे भारतवर्ष में अतीत काल से ही प्रचलित थीं । उनको इन विदेशी जातियों से जोड़ना निराधार है । इसी तरह से डाॅ. ओझा ने अभिलेखों से सिद्ध करने का प्रयत्न किया है कि दूसरी शताब्दी से सातवीं तक क्षत्रियों के उल्लेख मिलते हैं और मौर्य तथा नन्दों के पतन के बाद भी क्षत्रिय होना प्रमाणित है । कटक के पास उदयगिरि के वि. सं. पूर्व की दूसरी शताब्दी के राजा खारवेल के लेख में कुसंब जाति के क्षत्रियों का उल्लेख है । इसी तरह नासिक के पास की पाण्डव गुफा के वि. सं. की दूसरी शताब्दी के लेख में उत्तमभाद्र क्षत्रियों का वर्णन मिलता है । गिरिनार पर्वत के 150 ई. के पीछे के लेख में यौधेयों को स्पष्ट रूप स क्षत्रिय लिखा है । वि. सं. तीसरी शताब्दी के आस - पास जग्गयपेट तथा नागार्जुनी कोंड के लेखों में इक्ष्वाकुवंशीय राजाओं का नामोल्लेख है ।
वैसे तो जो प्रमाण डाॅ. ओझा ने रिवाजों की मान्यता का खण्डन करने के लिये दिये हैं वे कर्नल टॉड की कल्पना को निराधार प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं । इसी तरह पण्डितजी का नन्द-वंश के पहले और बाद में क्षत्रियों का होना भी सिद्ध करना प्रशंसनीय है । फिर भी इनकी दलीलों में वे यह नहीं ठीक-ठीक सिद्ध कर पाये हैं कि राजपूत, जो छठी व सातवीं शताब्दी से एक जाति के रूप में भारतीय राजनीतिक जीवन में आये उनका प्राचीन आर्यों से ही सम्बन्ध था कि विदेशियों से, जिन्होंने निश्चित रूप से हिन्दू संस्कृति को अपना लिया था अब महत्त्व का प्रश्न यह रह जाता है कि दूसरी शताब्दी ई. पू. से छठी शताब्दी तक आने वाले विदेशी अन्ततोगत्वा कहाँ गये ? इस प्रश्न को हल करने में हमें यही युक्ति सहायक होगी कि इन विदेशियों के यहाँ आने पर पुरानी सामाजिक व्यवस्था में अवश्य हेर - फेर हुआ ।
• गुर्जर वंश का मत •
राजपूता को गुर्जर मानकर, डाॅ. भण्डारकर ने विदेशी वंशीय मत को और बल दिया है । उनको मान्यता है कि गुर्जर जाति जो भारतवर्ष के उत्तर-पश्चिम विभाग में फैली हुई था उसका श्वेत-हूणों के साथ निकट सम्बन्ध था और ये दोनों जातियाँ विदेशी थीं । इसकी पुष्टि में वे बताते हैं कि पुराणों में गुर्जर और हूणों का वर्णन विदेशियों के सन्दर्भ में मिलता है । इसी प्रकार उनका कहना है कि अग्निवंशीय प्रतिहार, परमार, चालुक्य और चौहान भी गूजर थे, क्योंकि राजोर अभिलेख में प्रतिहारों को गूजर कहा गया है । राष्ट्रकूट और अरब यात्री भी प्रतिहारों को गूजर ही बताते हैं । जहाँ तक चौहानों का विदेशियों से उद्गम है , उनकी मान्यता है कि सेसेरियन मुद्राओं पर 'वासुदेव वहमन' जो अंकित मिलता है , वह 'वासुदेव चहमन' है ।
जो प्रमाण डाॅ. भण्डारकर ने राजपूतों का उद्गम गुर्जरों से सिद्ध करने के पक्ष में दिये हैं । उनसे वैद्य सहमत नहीं हैं । इनकी मान्यता है कि प्रतिहारों को जो गुर्जर कहा गया है वह जाति की संज्ञा से नहीं, वरन् उनका देश विशेष — गुजरात पर अधिकार होने के कारण है । राष्ट्रकूटों ने तथा अरब यात्रियों ने भी उन्हें भूमि विशेष से सम्बन्धित होने के कारण गुर्जर कहा है । इसी तरह डाॅ. दशरथ शर्मा मानते हैं कि सेसेरियन मुद्रा वाले 'वासुदेव वहमन' तथा 'वासूदेव चौहान' दोनों समकालीन नहीं हैं । ऐसी स्थिति में चौहानों को विदेशी नहीं ठहराया जा सकता है ।
• ब्राह्मणवंशीय मत •
डाॅ. भण्डारकर ने जहाँ गुर्जर मत को विदेशी आधार पर स्थिर किया है , वहाँ यह भी प्रतिपादन किया है कि कुछ राजपूत वंश धार्मिक वर्ग से भी सम्बन्धित थे जो विदेशी थे । इस मत की पुष्टि के लिए वे बिजोलिया-शिलालेख को प्रस्तुत करते हैं जिसमें वासुदेव के उत्तराधिकारी सामन्त को वत्स गोत्रीय ब्राह्मण बताया गया है । उनके अनुसार राजशेखर ब्राह्मण का विवाह अवन्ति सुन्दरी के साथ होना चौहानों का ब्राह्मण वंश से उत्पत्ति होने का एक अकाट्य प्रमाण है । कायमखाँ रासो में भी चौहानों की उत्पत्ति वत्स से बतायी गयी है जो जमदग्नि गोत्र से था । इस कथन की पुष्टि सुण्डा तथा आबू अभिलेख से भी होती है । इसी तरह डाॅ. भण्डारकर का मत है कि गुहिल राजपूतों की उत्पत्ति नागर ब्राह्मणों से थी ।
डाॅ. ओझा तथा वैद्य इस ब्राह्मणवंशीय मत को अस्वीकार करते हैं और लिखते हैं कि जो भ्रान्ति डाॅ. भण्डारकर को राजपूतों की ब्राह्मणों से उत्पत्ति के सम्बन्ध में हुई है वह 'द्विज' ,'ब्रह्मक्षत्री', 'विप्र ', आदि शब्दों से हुई है जिनका प्रयोग राजपूतों के लिए अभिलेखों में हुआ है, परन्तु इनकी मान्यता है कि इन शब्दों का प्रयोग क्षत्रिय जाति की अभिव्यक्ति के लिए हुआ है न कि ब्राह्मण जाति के लिए ।
वैसे तो डाॅ. भण्डारकर का राजपूतों की उत्पत्ति सम्बन्धी ब्राह्मणवंशीय मत राजवंशों के लिए लागू किया जाना ठीक नहीं दिखायी देता, परन्तु इसके पीछे बल अवश्य है । मेरी कुम्भलगढ़ प्रशस्ति, द्वितीय पट्टिका की खोज और उसके पद्यांशों का सम्पादन इस निर्णय पर पहँचाते हैं कि बापा रावल, जो गुहिल वंशीय थे, आनन्दपुर के ब्राह्मण वंश से थे और जिन्होंने नागदा में आकर हारीत ऋषि की अनुकम्पा से शासक की प्रतिष्ठा को प्राप्त किया । बापा के पीछे भर्तृभट्ट को भी चाटसू अभिलेख में 'ब्रह्मक्षत्री' इसलिए कहा है कि उसे ब्राह्मण संज्ञा से क्षत्रियत्व प्राप्त हुआ था । चाहे हम 'ब्रह्मक्षत्री' तथा 'द्विज' शब्दों को ब्राह्मण या क्षत्री के सन्दर्भ में काम में लायें, परन्तु वस्तुतः 'विप्र' शब्द का उपयोग पुराने लेखों में, जो इन राजपूत वंशों के लिए किया गया है, उनका ब्राह्मण होना सिद्ध करता है । भारतवर्ष का इतिहास ऐसे कई उदाहरणों को उपस्थित करता है जहाँ प्रारम्भ में ब्राह्मण होते हुए कई राजवंश क्षत्रिय पद को प्राप्त हुए । ऐसे वंशों में काण्व तथा शुंग वंश मुख्य हैं ।
सारांश यह है कि जिस तरह शक, पल्हव, हूण आदि विदेशी यहाँ आये और जिस तरह उनका विलीनीकरण भारतीय समाज में हुआ, इसका साक्षी इतिहास है । ये लोग लाखों की संख्या में थे । पराजित होने पर इनका यहाँ बस जाना भी प्रामाणिक है । ऐसी अवस्था में उनका किसी-न-किसी जाति से मिलना स्वाभाविक था । उस समय की युद्धोपजीवी जाति ही ऐसी थी जिसने इन्हें दबाया और उन्हें समानशील होने से अपने में मिलाया । इसी तरह छठी व सातवीं शताब्दी में क्षत्रियों और राजपूतों का समानार्थ में प्रयुक्त होना भी यह संकेत करता है कि इन विदेशियों के रक्त से मिश्रित जाति ही राजपूत जाति थी जो यकायक क्षात्र धर्म से सुसज्जित होकर प्रकाश में आ गयी और शकादिकों का अस्तित्व समाप्त हो गया । यह स्थिति सामाजिक उथल-पथल की पोषक है । हरियादेवी नामक हूण कन्या का विवाह गुहिलवंशीय अल्लट के साथ होना जो कि सन् 1034 के शक्ति कुमार के शिलालेख से स्पष्ट है, इस सामंजस्य का अकाट्य प्रमाण है । जब सभी राजसत्ता ऐसी जाति के हाथ में आ गयी तो ब्राह्मणों ने भी उन्हें क्षत्रियों की संज्ञा दी । उनकी राजनीतिक स्थिति ने उन्हें राजपुत्र की प्रतिष्ठा प्रदान की जिसे लौकिक भाषा में राजपूत कहने लगे । इस सम्बन्ध में इतना अवश्य स्वीकार करना पड़ेगा कि सम्भवतः सभी क्षत्रियों का विदेशियों से सम्पर्क न हुआ हो और कुछ एक वंशों ने अपना स्वतन्त्र स्थान बनाये रखा हो ।
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