• प्राक्कथन •
राजस्थान में राजपूत राज्यों की स्थापना ऐतिहासिक काल-क्रम में बहुत ही निकट की है । इन राज्यों की स्थापना के पहले युग-युगान्तर के अन्तराल व्यतीत होते रहे और यहाँ भू-भाग की विविधता और वैचित्र्य की भाँति ऐतिहासिक घटनाओं में विलक्षणता आती रही । इस प्रकार के वैविध्य की साक्षी मरुस्थल या चट्टानों में दबे जीवाश्म या भू-गर्भ में दबे नमक के आकार अथवा मिट्टी के ढेर में सोयी हुई बस्तियाँ तथा मन्दिर , आदि दे रहे है । इन सामग्रियों का वैज्ञानिक अध्ययन हमें इस निश्चय पर पहुंचाता भारतीय प्राचीनतम बस्तियों में राजस्थान का एक महत्त्वपूर्ण स्थान है और उसकी गणना अनुमानतः एक लाख वर्ष प्राचीन प्रतीकों में की जा सकती है ।
• राजस्थान और प्रस्तर-युग •
बनास, गम्भीरी, बेडच, बाधन तथा चम्बल नदियों को घाटियों तथा इनके समीपवर्ती तटीय स्थानों के परिवेक्षण से प्रमाणित हो चुका है कि दक्षिण - पूर्वी तथा उत्तर - पूर्वी राजस्थान की नदियों के किनारे, जो वर्तमान कालीन बाँसवाड़़ा, डुंगरपुुर
उदयपुर, भीलवाड़ा, बूंदी, कोटा, झालावाड़, इन्द्रगढ़ आदि जिलों या तहसीलों के अन्तर्गत है . प्रस्तरयुगीन मानव रहता था और पत्थरों के हथियारों का प्रयोग था । ये हथियार भद्दे और भोंडे थे । इस प्रकार के हथियार बहुतायत से अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं जो ये हैं :
नगरी, खोर, ब्यावर, खेड़ा, बड़ी, अचनर, ऊणचा देवडी, हीरोजी का खेड़ा, बल्लूखेड़ा (बडच और गम्भीरी के तट चित्तौड जिले में), भैंसरोडगढ, नवाघाट (चम्बल और वामनी के तट पर), हमीरगढ़, सरूपगंज, मण्डपिया, बीगोद, जहाजपुर, खुरियास, देवली, मंगरोप, दुरिया, गोगाखेडा, पुर, पटला, संद, कुवारिया, गिलुॅड आदि (बनास तट तथा भीलवाडा जिले में), लूणी (जोधपुर में गुणों की घाटी), सिंगारी और पाली (गुहिया और बाँटी नदी की घाटी), समदडी, शिकारपुरा, भावल, पीचक, भाॅडेल, धनवासनी, सोजत, धनेरी, भेटान्दा, दुन्दारा, गोलियो, पीपाड, खीमसर, उम्मेदनगर आदि ( मारवाड़ में ), गागरोन( झालावाड़), गोविन्दगढ़( सागरमती अजमेर जिले में), कोकानी (परवानी नदी कोटा जिले में) भुवाणा, हीरो, जगन्नाथपुर, सियालपुरा, पच्चर, तरावट, गोमासला, भरनी (बनाम के तट पर टोक जिल में ) । इन हथियारों को प्रयोग में लाने वाला मनुष्य निरा बर्बर था । उसका आहार शिकार किये हुए बनेले जानवरों का मांस और प्रकृति द्वारा उपजाये कन्द, मूल, फल आदि थे । इस काल का मनुष्य अपने मृतकों को जानवरों, पक्षियों और मछलियों के लिए मैदान या पानी में फेंक दिया करता था ।
• प्रस्तर - धातु युग और राजस्थान •
अब तक जो हमने राजस्थान के बारे में जानने का मार्ग ढूँढा, वह तमपूर्ण था । आगे चलकर मानव इस स्तर से आगे बढ़ा और राजस्थानी सभ्यता की गोधूलि की आभा स्पष्ट दिखायी देने लगी । ऋग्वैदिक काल से शायद सदियों पूर्व आहड (उदयपुर के निकट) और दृषद्वती और सरस्वती (गंगानगर के निकट) नदियों के काँटे जीवन लहरें मारता हुआ दिखायी देने लगा । इन काँठों पर मानव - संस्कृति सक्रिय थी और कुछ अंश में हड़प्पा तथा मोहनजोदड़ो की सभ्यता की समकक्ष तथा समकालीन - सी थी । आज पाँच - छ : हजार वर्ष पहले इन नदी - घाटियों में बसकर मानव पशु पालने, भाण्ड बनाने, खिलौने तैयार करने, मकान - निर्माण करने आदि कलाओं को जान गया था । इस सुदूर अतीत को समझने के लिए हमें कालीबंगा व आघाटपर से उपलब्ध सामग्री का अध्ययन करना होगा ।
• कालीबंगा •
आहड और बेडच नदी की घाटी से भी अधिक महत्त्वपूर्ण सभ्यता दृषद्वती और सरस्वती घाटी में पायी है । जो हड़प्पा की सभ्यता के समकालीन - सी है । इन नदियों के काँठे पर कई ऐसे स्थान हैं जो उस युग के प्रतीक हैं , जिनमें कालीबंगा बड़ा प्रसिद्ध है । आज से 4 - 5 हजार वर्ष पूर्व यहाँ उदीयमान सभ्यता विकसित हुई जिसका प्रमाण साहित्य नहीं वरन् खुदाई से प्राप्त कई वस्तुएँ हैं । इन वस्तुओं का तथा स्थान विशेष का विश्लेषण यह प्रमाणित करता है कि यहाँ के जन - जीवन और शासन-व्यवस्था का ऐसा स्वरूप बन गया कि वह राजस्थान के लिए एक गौरव की घटना हो गयी । यहाँ की खुदायी से मिलने वाली वस्तुओं में बर्तन, ताँबे के औजार, चूड़ियाँ, अंकित मुहरें, तौल, मृण्मय मूर्तियाँ, खिलौने आदि हैं । यहाँ के मकान, चौड़ी सड़कें, किला, गोल कुएँ , दीवारें आदि अपने ढंग के हैं जो उस समय के शालीन तथा क्रमिक नगर योजना के अंग हैं । पत्थर के अभाव के कारण दीवारें सूर्यतपी ईंटों से बनती थीं और इन्हें मिट्टी से जोड़ा जाता था । व्यक्तिगत और सार्वजनिक नालियाँ और कूड़ा डालने के भाण्ड नगर की सफाई की असाधारण व्यवस्था के अंग थे । यदि मुहरों की उत्कीर्ण लिपि को जब कभी पढ़ा जा सकेगा तो इस सभ्यता के कई पक्ष स्पष्ट हो सकेंगे ।
अभाग्यवश ऐसे समृद्ध सभ्यता के केन्द्र का ह्रास हो गया । सम्भवतः भूचाल से या कच्छ के रन के रेत से भर जाने से ऐसा हुआ । जो समुद्री हवाएँ पहले इस ओर से नमी लाती थीं और वर्षा का कारण बनती थीं वे ही हवाएँ अब सूखी चलने लगीं और कालान्तर में यह भू - भाग रेत का समुद्र बन गया । सरस्वती नदी के अन्तर्ध्यान होने के उल्लेख पराणों में मिलते है जो इस अवस्था के द्योतक हैं ।
• आघाटपुर या आहड •
आहड आज खण्डहरों के ढेर में दबा पड़ा है । यह कहना कठिन है कि उस नगर का विध्वंस किन कारणों को लेकर हुआ । भूकम्प , आहड नदी का प्रवाह या बाढ़ , आक्रमण आदि कोई भी नगर विध्वंस का कारण हो सकता है । परन्तु निकट भविष्य की खुदाई जो 45 फुट नीचे तक कुछ खाइयों में की जा चुकी है और लगभग 15 स्तर में दिखायी देती है यह प्रमाणित करती है कि वर्षा के प्राचुर्य तथा आहड घाटी की उपज ने सम्भवतः भीलों को यहाँ आकर बसने के लिए आकर्षित किया और उन्होंने यहाँ बसकर हजारों वर्ष अपनी संस्कृति को समृद्ध बनाये रखा । यदि पूरे खण्डहर के ढेर को , जो लगभग 1600 फुट लम्बा और 550 फुट चौडा है खोद जाय तो यहाँ की विकसित सभ्यता के कई अज्ञात पहलू स्पष्ट हो सकते हैं । फिर भी कछ परीक्षण - खण्डन ने यहां से प्राप्त सामग्री को हमारे लिए उपलब्ध किया है जिसके आधार पर प्रमाणित होता है कि आहड दक्षिणी - पश्चिमी राजस्थान की सभ्यता का केन्द्र था ।
यहाँ के मकान पत्थरों से बने थे जिनमें सामने से सफाई से चिनाई की जाती थी । कमरे विशेष रूप से बड़े होते थे जिन्हें बाँसों और कवेलू से छाया जाता था । कमरों में बाँस की पड़दी बनाकर छोटे कमरों में परिणित किया जाता था । पड़दी पर चिकनी मिट्टी चढ़ाकर टिकाऊ बनाया जाता था । फर्श को भी मिट्टी से लीपा जाता था । कुछ खाइयों में दीवारें एक पर दूसरी बनायी हुई दिखायी देती है और कभी तो वे ऊपर की दीवार के समान्तर और कभी तिरछी जाती हैं जो अलग - अलग समय के निर्माण की द्योतक हैं ।
आहड सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे । यहाँ से मिलने वाले बड़े - बड़े भाण्ड तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न का उत्पादन करते थे और उसका पकाकर खाते थे । एक बड़े कमरे से जो बड़ी - बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं । इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन प्रभूत मात्रा में प्राप्त रहा होगा ।
आहड के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी । यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकाबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिले हैं । साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे 'ग्लेज' करके चमकीला बना दिया जाता था । बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ इरानियन शैली की बनती थीं जिससे हमें आहडियों का सम्बन्ध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है ।
इनके आभषण सीप, मुॅगा, बीज तथा मूल्यवान पत्थरों के होते थे । ये लोग सींग वाले पशु, कुत्ते, मेंडा, हाथी, गेंडा तथा मनुष्य आकृति वाले मिट्टी के खिलौने बनाते थे । इनके हथियार पत्थर बजाय ताँबे के बनते थे । सम्भवत : इस नगर का वैभव इससे निकट मिलने ताँबे की खानों के कारण भी हो।
इनके मृतक-संस्कार के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, परन्तु पहली-दूसरी शताब्दी के ऊपर की सतह के मनुष्य के अस्थिर-पिंजर के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वे मृतकों को आभूषण युक्त गाड़ते थे जिनका मस्तक उत्तर और पाँव दक्षिण को रखे जाते थे ।
यह सभ्यता, ऐसा प्रतीत होता है कि आहड से उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ी जैसा कि गिलुॅड और भगवानपुरा से मिलने वाली सामग्री से सिद्ध है । आगे चलकर इन स्थानों की सभ्यता मालवा और सौराष्ट्र के सम्पर्क में आयी, नवदातोली में मिलने वाले उपकरणों और गिलुॅड के उपकरणों की सभ्यता इस अनुमान की पुष्टि करती है । फिर भी यह तो सर्वथा मान्य है कि आइड सभ्यता का आरम्भ गिलुॅड की सभ्यता (लगभग 1500 ई.पू.) से अधिक प्राचीन रहा होगा, क्योंकि आहड का जटिल और समन्वित नागरिक जीवन नि:सन्देह शताब्दियों के विकास का परिणाम था ।
• राजस्थान और आर्य बस्तियाँ •
धीरे धीरे सरस्वती और दृषद्वती तटीय भाग की प्राचीन बस्तियाँ हटकर पूर्व और दक्षिण की ओर किसी कारणवश बढ़ने लगी और सम्भवतः आर्य, जो बसने के स्थानों की खोज में । इधर-उधर बढ़ रहे थे, इन नदियों की उपत्यकाओं में आकर बसने लगे । इसके प्रमाण में भूरी मिट्टी के बर्तन के टुकड़े हैं जो अनूपगढ़ से दूसरे ढेर से या तरखानवाला डेरा की खुदाई से प्राप्त हैं । ये भाण्डों के टुकड़े हड़प्पा के बर्तनों के टुकड़ों से भिन्न हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहीं से आर्य बस्तियों कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढी हो । इन्द्र और सोम की अर्चना के मन्त्रों की रचना, यज्ञ की महत्त्वता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को इसी नदी की घाटी में निवास करते हुए हुआ था, ऐसी विद्वानों की मान्यता है ।
महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रमाणित होता है कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे जो आर्यों की यादव शाखा के नेता थे । इसी तरह अनुश्रुतियों के आधार से माना जाता है कि पुष्करारण्य और अर्बुदाचल, मध्य प्रदेश और गुर्जर देश को मिलाने वाले मार्ग पर थे और उनकी गणना बड़े तीर्थों में थी । महाभारत में शाल्व जाति की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है जो भीनमाल है सांचोर और पिरोही के आस-पास थीं ।
• राजस्थान और जनपद युग (300 ई. पू . से 300 ई.) •
इस प्रारम्भिक आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का प्रभात होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएं अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं । तीसरी ईसा पूर्व से हमें यहाँ मुद्राएँ, आभूषण, अभिलेख, नगरों के खण्डहर अधिक परिमाण में मिलते हैं जिससे प्रमाणित होता है कि पूर्वी राजस्थान में ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति पनप रही थी । वैराट, रेड, सांभर, नगर और नगरी खनन और अन्वेषण ने इस सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है । वैसे तो सिकन्दर के अभियान से जर्जरित तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने में उत्सक दक्षिण पंजाब की मालवशिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं । ये जातियाँ जनपद के रूप में व्यवस्थित थीं जिनके सिक्के लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से मिलते हैं । इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद , नगरी का शिव जनपद, अलवर के भाग का शाल्व जनपद प्रमुख हैं । परन्तु लगभग इसी काल से लगाकर चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है जब कुशाण शक्ति निर्बल हो चली थी और भारतवर्ष में गुप्ताओं के पूर्व कोई केन्द्रीय शक्ति नहीं रही थी ।
मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट नगर था । कुछ मुद्राएँ तथा एक ताम्र-पत्र इसी प्रान्त से उपलब्ध हुए हैं जो इनकी शक्ति संगठन काल की तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ले जाते हैं । समयान्तरों में मालव अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये और प्रथम शताब्दी ईसा के अन्त तक गणतन्त्रीय राज्य के रूप में बने रहे । थोड़े समय तक पश्चिमी क्षत्रपों के प्रभाव ने इन्हें निर्बल बना दिया परन्तु तीसरी शताब्दी में इन्होंने अपने संगठन द्वारा क्षत्रपों को पराजित कर अपनी स्वतन्त्रता को पुनः स्थापित किया । सम्भवतः श्री सोम ने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया और ब्राह्मणों को गोदान से सन्तुष्ट किया । ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतन्त्र बने रहे ।
भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन भी अपनी विजयश्री के लिए बड़े प्रसिद्ध हैं । इनकी मुद्राओं पर भी 'अर्जुनायनानां जयः' अंकित मिलता है जो प्रमाणित करता है कि ये क्षत्रपों को परास्त करने में मालवों के सहयोगी रहे हों, क्योंकि मालव मुद्राओं पर भी इसी भाँति 'मालवानां जयः' मिलता है । इस प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक बलशाली गणतन्त्रीय कबीला था जिनमें कुमारनामी इनका एक बड़ा शक्तिशाली नेता हो चुका है । यौधेय सम्भवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे जो एक रुद्रदामा के लेख से स्पष्ट है । कुषाणों की साम्राज्य-शक्ति से मुकाबला कर इन्होंने वीरता और अदम्यता की ख्याति प्राप्त की थी । ये इन्हीं का गणराज्य था जिसने अन्य गणतन्त्रीय व्यवस्थाओं से मिलकर शक-ऋषिक-तुरवार सत्ता को राजस्थान , पंजाब और दोआब से उखाड़ फेंका ।
यह तो निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि मालव या यौधेयों में किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी परन्तु कुछ शिलालेखों तथा निकट सामयिक ग्रन्थों से यह अनुमान लगाया सकता है कि यौधेय व्यवस्था में अर्द्ध - राजसत्तात्मक शासन के ढंग को अपनाया गया था और उनके प्रमुख नेता को महाराज-सेनापति कहा जाता था । उसकी नियुक्ति यौधेयगण करता था । वैसे तो वैशाली के गणतन्त्र में भी सेनापति का एक पद था परन्तु सतत् युद्ध की स्थिति ने यौधेय सेनापति को महाराज की उपाधि से भी अलंकृत कर दिया था । मालवों के जनपदो में भी उपरीय व्यवस्थापक का एक स्थान था परन्तु उसके अधिकारों पर नियन्त्रण जनपद का होना स्वाभाविक था ।
इस युग में स्थापत्य कला ने अपनी एक विशेष प्रगति की थी । वैराट के विहार रेड के ईंटों के मकान , बीजक पहाड़ी का गोलाकार मन्दिर , नगरी का गरुड़ स्तम्भ , शिला प्राकार , स्तूप तथा वास्तविक और त्रिरत्ल के चिह्न उस समय के स्थापत्य के अवशेष के अच्छे उदाहरण हैं ।
इसी प्रकार कुषाणों के सम्पर्क ने राजस्थान के पत्थर और मृण्मय मूर्ति-कला को एक नवीन मोड दिया जिसके नमूने अजमेर के नाद की शिव प्रतिमा, साँभर का स्त्री का धड़ तथा अश्व । तथा अजामुख हयग्रीव या अग्नि की मूर्ति अपने आप कला के अद्वितीय नमूने हैं । बीकानेर । क्षेत्र में बड़ीपल और रंगमहल की मूर्तियों के केश, आभूषण और उत्तरीय के दिखाव गांधार शैली से प्रभावित दीख पड़ते हैं परन्तु वास्तव में उनमें एक स्थानीयपन है जो गले के आभूषण, कन्धे के आच्छादन तथा बालों की बनावट से स्पष्ट है । परन्तु गांधार शैली का इतने दूर तक तीसरी शताब्दी में प्रभाव बढ़ना असंगत प्रतीत होता है ।
लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा काल में धर्म का राजस्थान में एक स्वरूप निर्धारित हो चुका था । नगरी, लालसोट, रेड, वैराट, पुष्कर के खण्डहर तथा स्तम्भ और स्तूप यह प्रमाणित करते हैं कि राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बुद्ध धर्म का काफी प्रचार था । परन्तु यौधेय और मालवों के यहाँ आने से, ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के ह्रास के चिह्न दिखायी देने लगे । यज्ञ, दान, दक्षिणा का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया । श्री सोम नान्दसा में षष्ठिरात्र यज्ञ के उत्सव के उपलक्ष में गौओं का दान लेकर और ब्राह्मणों को सन्तुष्ट कर अपने आपको कृतकृत्य समझने लगा । घोसुंडी शिलालेख से (200 ई . पू) विदित है कि शंकर्षण और वासुदेव की आराधना उस समय प्रचलित थीं । बीकानेर संग्रहालय की दानलीला की मूर्ति कृष्ण कथा की लोकप्रियता प्रमाणित करती है । समाज में शिव तथा महिषासुर मर्दिनी (नगर की) की आराधना प्रचलित थी । यौधेय युद्धप्रिय होने से कार्तिकेय और चामुण्डा के उपासक थे । इन सभी धार्मिक विश्वासों के होते हुए पंचरात्र विधि और शैव सिद्धान्त के दर्शक अभी बौद्धिक विचार में पूरा प्रवेश नहीं करने पाये थे । ये सभी शैशव स्थिति से गुजर रहे थे ।
•राजस्थान-गुप्तकाल से हूण आक्रमण तक
(300-600ई.)•
गुप्ताओं की शक्ति के उदय के साथ-साथ राजस्थान में स्थित मानव, यौधेय, आभीर आदि गणराज्य यथाविधि बने रहे जैसा कि समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख से प्रमाणित होता है । परन्तु इस लेख में मोखरियों का जिक्र नहीं है जो कोटा के आस-पास शक्तिशाली थे । सम्भवतः, 350 ई . तक ये नगण्य हो गये हों । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त सम्राटों ने इन विभिन्न गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया परन्तु इन्हें अर्द्ध-आश्रित रूप में बनाये रखा । इस स्थिति में वे ईसा की पांचवीं शताब्दी तक गणतन्त्र के रूप में बने रहे । परन्तु जब हूणों ने पंजाब तथा अन्य उत्तरी भागों को अपने आतंक से नष्ट-भष्ट कर दिया तो उस तूफानी अभियान का धक्का सहन करने की क्षमता उनमें नहीं रही । हूण अपनी नृशंस प्रवृत्ति से वैराट, रंगमहल, बडापल, पीर सुल्तान-की-थड़ी आदि समृद्ध स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने से न हिचके । राजस्थान के लिए छठवीं शताब्दी का समय शुभ नहीं था, इस अर्थ में कि यहाँ सदियों से पनपी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी ।
• शासन - व्यवस्था •
जहाँ तक राजनीतिक जीवन का प्रश्न है, हमने पहले ही पढ़ा है कि राजस्थान में केन्द्रीय गुप्त व्यवस्था ने आन्तरिक शासन में कोई हस्तक्षेप नीति को नहीं अपनाया । इसका फल यह हुआ कि गणतन्त्रीय व्यवस्थाएँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र बनी रहीं । एक प्रकार का नाममात्र का आधिपत्य स्वीकार करने के अतिरिक्त उनका केन्द्रीय राज्य से कोई विशेष सम्बन्ध नहा । था । परन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु के पीछे धीरे - धीरे गणतन्त्रीय राज्यों में निर्बलता आ जाने से । उनमें भी छोटी-छोटी इकाइयाँ बन गयीं जिनका वर्णन यथास्थान किया जायेगा ।
• सामाजिक और आर्थिक स्थिति •
इस काल में राजस्थान का समाज वणों में विभाजित था, परन्तु विदेशी प्रभाव तथा विदेशी जातियों के आ जाने से सामाजिक विघटन और विकृति के तत्त्व दिखायी देने लगे थे । ज्यों-ज्यों शकों की शक्ति कम होती गयी उनको यहाँ की स्थायी सामाजिक व्यवस्था से मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे के प्रति सहयोग तथा सहवास की भावना उत्पन्न करने की क्षमता आ गयी । हूणों के आक्रमण ने पहले के विदेशी समुदाय को स्थानीय समुदाय के साथ मिला दिया । आगे चलकर हूण भी ऐसे समाज के साथ मिल गये । इस युग की आर्थिक स्थिति की जानकारी हमें भरतपुर, बुन्दीवाली डूंगरी (जयपुर), अजमेर तथा मेवाड़ से मिलने वाले चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम की सुवर्ण मुद्राओं से होती है ।
• धार्मिक प्रगति •
राजस्थान के गप्त शासनकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई । सांभर के नालियामाकी रजत मद्राओं से जो कुमारगुप्त प्रथम की हैं और जिन पर मयूर की आकृति बनी हुई है होता है कि उस समय स्वामी कार्तिक की पूजा लोकप्रिय थी । कोटा के मुकन्दरा और कृष्ण विलास के मन्दिर तथा भीनमाल, मंडोर के स्तम्भ, पाली और कामा की विष्णु, कृष्ण, बलराम आदि की मूर्तियाँ इन क्षेत्रों में वैष्णव धर्म के प्रसार की द्योतक हैं । ये मूर्तियाँ कुछ तो जोधपुर तथा कुछ भरतपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इसी तरह 423 ई. का गंगाधर शिलालेख और 425 ई . का नगरी का शिलालेख इन स्थानों में विष्णु के मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख करते हैं ।
जब वैष्णव धर्म समाज का धर्म बना हुआ था तो उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में इस धर्म के साथ-साथ शैव धर्म की भी मान्यता थी । कोटा का चारचोमा का मन्दिर और रंगमहल व वडोपल से प्राप्त शिव-पार्वती की मूर्तियाँ तथा साँभर, कल्याणपुर और कामा के शिव-पार्वती की मूर्तियाँ शैव धर्म की लोकप्रियता बताती हैं ।
इन धर्मों के साथ-साथ उदयपुर जिले का भ्रमरमाता का मन्दिर, नालियासर की दुर्गादेवी की खण्डित पट्टिका तथा दुर्गा और गंगा का रेड से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर अंकन यहाँ मातृदेवी की उपासना का प्रचलन बताते हैं ।
इन देवता और देवियों की उपासना के साथ - साथ राजस्थान में ब्राह्मण धर्म और अनुष्ठान को प्रोत्साहन मिला हुआ था । एक खण्डित शिलालेख में जो लगभग चौथी शताब्दी का है,
वाजपेय यज्ञ का उल्लेख है तो 424 के गंगाधर यूप लेख में नरवर्मन द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने की अभिलाषा से यज्ञों के करने का वर्णन है । इसी गंगाधर के लेख में तान्त्रिक विधि से मातृदेवी की आराधना का उल्लेखतन्त्र और मन्त्र में विश्वास रखने की ओर संकेत करता है । मण्डोर सिरोही तथा पिण्डवाडा से मिलने वाली पत्थर काँसे और सर्वधात् की मुर्तियां पश्चिमी राजस्थान में जैन धर्म के प्रचार और प्रसार पर प्रकाश डालती हैं।
• मूर्तिकला तथा वास्तुकला •
गुप्त कला की अभिव्यक्ति में राजस्थान बड़ा समृद्ध है । इस काल की प्रतिमाएँ जो अमझेरा (डूॅगरपुर), कल्याणपुर और जगत (उदयपुर), आम्बानेरी (जयपुर), मण्डोर ओसियाँ (जोधपुर), बाडोली, कोटा, बसेरी (धौलपुर), नीलकंठ और सेंचली (अलवर) आदि स्थानों से प्राप्त हुई है; अलंकृत कला, सते हुए त्रिचीवरों तथा केश के नवीन प्रसाधनों से गुप्त शैली के अधिक समीप हैं । रंगमहल, मुण्डा, पीरसल्लानरी-थडी से, जो बीकानेर क्षेत्र में हैं, जो सामग्री उपलब्ध हुई है यह अपनी सजीवता, सादगी, गति तथा तक्षण कला में विशिष्टता प्रकट करती हैं । साँभर की उत्खनन सामग्री में मिटटी के बर्तनों के टुकड़ों पर बनी हुई विविध आकृतियाँ, फूलों की पंखड़ियाँ, पत्तियों की बनावट और जालीदार रेखाकृति परम्परा के विचार से ऐसी निर्दोष है कि उन्हें देखते ही बनता है ।
इस युग में वास्तू-शिल्प को बहुत प्रोत्साहन मिला जो मूकन्दरा तथा नगरी के मन्दिरों से प्रमाणित है । इन मन्दिरों के शिखर, प्रासाद तथा चौकोर और गोल खम्भौं की प्रणाली उत्तर गुप्तकाल में बनने वाले ओसियाँ आम्बानेरी और बाडोली के मन्दिरों की निर्माण कला में नयी दिशा निर्धारित करने के आधार बने । इतना ही नहीं, इन्हीं मन्दिरों की मूलभूत वास्तु-कुशलता को लेकर भारतीय नागर और द्रवित शैली का विकास हुआ था ।
• शिक्षा का प्रसार •
इस काल में निःसन्देह अनेक प्रतिभाशाली मेधावी हए जिन्होंने स्तम्भ-लेखों के द्वारा काव्य-प्रतिभा तथा सुसंस्कृत होने का प्रमाण दिया है । इससे यह भी प्रकट होता है कि इन मेधावियों ने अपनी साहित्यिक प्रखरता का जनता पर गहरा प्रभाव डाला था । ठीक इस युग की समाप्ति के बाद सातवीं शताब्दी में भीनमाल में माध का होना और चित्रकूट (चित्तौड़) में हरिभद्र सूरि के होने से सिद्ध है कि राजस्थानी साहित्यिक तथा काव्य सम्बन्धी प्रगति गुप्त काल में विकसित और समृद्ध अवस्था में थी, जो निकट भविष्य में प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों को जन्म दे सकी । इस काल की बौद्धिक अभिसृष्टि से विदित होता है कि उस युग में प्रचलिता शिक्षा प्रणाली भी अच्छी रही होगी । ब्रह्म सिद्धान्तों का लेखक ब्रह्मगुप्त भीनमाल में रहकर गणित सम्बन्धी ज्ञान को प्रसारित करता रहा । सम्भवतः 72 आर्य छन्दों में इसी विद्वान 'ध्यानग्रह' का सृजन किया था ।
यहाँ के मकान पत्थरों से बने थे जिनमें सामने से सफाई से चिनाई की जाती थी । कमरे विशेष रूप से बड़े होते थे जिन्हें बाँसों और कवेलू से छाया जाता था । कमरों में बाँस की पड़दी बनाकर छोटे कमरों में परिणित किया जाता था । पड़दी पर चिकनी मिट्टी चढ़ाकर टिकाऊ बनाया जाता था । फर्श को भी मिट्टी से लीपा जाता था । कुछ खाइयों में दीवारें एक पर दूसरी बनायी हुई दिखायी देती है और कभी तो वे ऊपर की दीवार के समान्तर और कभी तिरछी जाती हैं जो अलग - अलग समय के निर्माण की द्योतक हैं ।
आहड सभ्यता के लोग कृषि से परिचित थे । यहाँ से मिलने वाले बड़े - बड़े भाण्ड तथा अन्न पीसने के पत्थर प्रमाणित करते हैं कि ये लोग अन्न का उत्पादन करते थे और उसका पकाकर खाते थे । एक बड़े कमरे से जो बड़ी - बड़ी भट्टियाँ मिली हैं वह सामूहिक भोज की पुष्टि करती हैं । इस भाग में वर्षा अधिक होने और नदी पास में होने से सिंचाई की सुविधा यह सिद्ध करती है कि वहाँ भोजन प्रभूत मात्रा में प्राप्त रहा होगा ।
आहड के निवासियों को बर्तन बनाने की कला आती थी । यहाँ से मिट्टी की कटोरियाँ, रकाबियाँ, तश्तरियाँ, प्याले, मटके, कलश आदि बड़ी संख्या में मिले हैं । साधारणतया इन बर्तनों को चाक से बनाते थे जिन पर चित्रांकन उभरी हुई मिट्टी की रेखा से किया जाता था और उसे 'ग्लेज' करके चमकीला बना दिया जाता था । बैठक वाली तश्तरियाँ और पूजा में काम आने वाली धूपदानियाँ इरानियन शैली की बनती थीं जिससे हमें आहडियों का सम्बन्ध ईरानी गतिविधि से होने की सम्भावना प्रकट होती है ।
इनके आभषण सीप, मुॅगा, बीज तथा मूल्यवान पत्थरों के होते थे । ये लोग सींग वाले पशु, कुत्ते, मेंडा, हाथी, गेंडा तथा मनुष्य आकृति वाले मिट्टी के खिलौने बनाते थे । इनके हथियार पत्थर बजाय ताँबे के बनते थे । सम्भवत : इस नगर का वैभव इससे निकट मिलने ताँबे की खानों के कारण भी हो।
इनके मृतक-संस्कार के सम्बन्ध में हमें कोई स्पष्ट जानकारी नहीं मिलती, परन्तु पहली-दूसरी शताब्दी के ऊपर की सतह के मनुष्य के अस्थिर-पिंजर के अनुशीलन से ज्ञात होता है कि वे मृतकों को आभूषण युक्त गाड़ते थे जिनका मस्तक उत्तर और पाँव दक्षिण को रखे जाते थे ।
यह सभ्यता, ऐसा प्रतीत होता है कि आहड से उत्तर-पूर्व और दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ी जैसा कि गिलुॅड और भगवानपुरा से मिलने वाली सामग्री से सिद्ध है । आगे चलकर इन स्थानों की सभ्यता मालवा और सौराष्ट्र के सम्पर्क में आयी, नवदातोली में मिलने वाले उपकरणों और गिलुॅड के उपकरणों की सभ्यता इस अनुमान की पुष्टि करती है । फिर भी यह तो सर्वथा मान्य है कि आइड सभ्यता का आरम्भ गिलुॅड की सभ्यता (लगभग 1500 ई.पू.) से अधिक प्राचीन रहा होगा, क्योंकि आहड का जटिल और समन्वित नागरिक जीवन नि:सन्देह शताब्दियों के विकास का परिणाम था ।
• राजस्थान और आर्य बस्तियाँ •
धीरे धीरे सरस्वती और दृषद्वती तटीय भाग की प्राचीन बस्तियाँ हटकर पूर्व और दक्षिण की ओर किसी कारणवश बढ़ने लगी और सम्भवतः आर्य, जो बसने के स्थानों की खोज में । इधर-उधर बढ़ रहे थे, इन नदियों की उपत्यकाओं में आकर बसने लगे । इसके प्रमाण में भूरी मिट्टी के बर्तन के टुकड़े हैं जो अनूपगढ़ से दूसरे ढेर से या तरखानवाला डेरा की खुदाई से प्राप्त हैं । ये भाण्डों के टुकड़े हड़प्पा के बर्तनों के टुकड़ों से भिन्न हैं । ऐसा प्रतीत होता है कि यहीं से आर्य बस्तियों कालान्तर में दोआब आदि स्थानों की ओर बढी हो । इन्द्र और सोम की अर्चना के मन्त्रों की रचना, यज्ञ की महत्त्वता की स्वीकृति और जीवन-मुक्ति का ज्ञान आर्यों को इसी नदी की घाटी में निवास करते हुए हुआ था, ऐसी विद्वानों की मान्यता है ।
महाभारत तथा पौराणिक गाथाओं से प्रमाणित होता है कि जांगल (बीकानेर), मरुकान्तार (मारवाड़) आदि भागों से बलराम और कृष्ण गुजरे थे जो आर्यों की यादव शाखा के नेता थे । इसी तरह अनुश्रुतियों के आधार से माना जाता है कि पुष्करारण्य और अर्बुदाचल, मध्य प्रदेश और गुर्जर देश को मिलाने वाले मार्ग पर थे और उनकी गणना बड़े तीर्थों में थी । महाभारत में शाल्व जाति की बस्तियों का भी उल्लेख मिलता है जो भीनमाल है सांचोर और पिरोही के आस-पास थीं ।
• राजस्थान और जनपद युग (300 ई. पू . से 300 ई.) •
इस प्रारम्भिक आर्य संक्रमण के बाद राजस्थान में जनपदों का प्रभात होता है, जहाँ से हमारे इतिहास की घटनाएं अधिक प्रमाणों पर आधारित की जा सकती हैं । तीसरी ईसा पूर्व से हमें यहाँ मुद्राएँ, आभूषण, अभिलेख, नगरों के खण्डहर अधिक परिमाण में मिलते हैं जिससे प्रमाणित होता है कि पूर्वी राजस्थान में ब्राह्मण और बौद्ध संस्कृति पनप रही थी । वैराट, रेड, सांभर, नगर और नगरी खनन और अन्वेषण ने इस सम्बन्ध में अच्छा प्रकाश डाला है । वैसे तो सिकन्दर के अभियान से जर्जरित तथा अपनी स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने में उत्सक दक्षिण पंजाब की मालवशिवि तथा अर्जुनायन जातियाँ, जो अपने साहस और शौर्य के लिए प्रसिद्ध थी, अन्य जातियों के साथ राजस्थान में आयीं और सुविधा के अनुसार यहाँ बस गयीं । ये जातियाँ जनपद के रूप में व्यवस्थित थीं जिनके सिक्के लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से मिलते हैं । इनमें भरतपुर का राजन्य जनपद और मत्स्य जनपद , नगरी का शिव जनपद, अलवर के भाग का शाल्व जनपद प्रमुख हैं । परन्तु लगभग इसी काल से लगाकर चौथी शताब्दी के प्रारम्भ तक मालव, अर्जुनायन तथा यौधेयों की प्रभुता का काल राजस्थान में मिलता है जब कुशाण शक्ति निर्बल हो चली थी और भारतवर्ष में गुप्ताओं के पूर्व कोई केन्द्रीय शक्ति नहीं रही थी ।
मालवों की शक्ति का केन्द्र जयपुर के निकट नगर था । कुछ मुद्राएँ तथा एक ताम्र-पत्र इसी प्रान्त से उपलब्ध हुए हैं जो इनकी शक्ति संगठन काल की तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व ले जाते हैं । समयान्तरों में मालव अजमेर, टोंक तथा मेवाड़ के क्षेत्र तक फैल गये और प्रथम शताब्दी ईसा के अन्त तक गणतन्त्रीय राज्य के रूप में बने रहे । थोड़े समय तक पश्चिमी क्षत्रपों के प्रभाव ने इन्हें निर्बल बना दिया परन्तु तीसरी शताब्दी में इन्होंने अपने संगठन द्वारा क्षत्रपों को पराजित कर अपनी स्वतन्त्रता को पुनः स्थापित किया । सम्भवतः श्री सोम ने 225 ई. में अपने शत्रुओं को परास्त करने के उपलक्ष में एकषष्ठी यज्ञ का आयोजन किया और ब्राह्मणों को गोदान से सन्तुष्ट किया । ऐसा प्रतीत होता है कि समुद्रगुप्त के काल तक वे स्वतन्त्र बने रहे ।
भरतपुर-अलवर प्रान्त के अर्जुनायन भी अपनी विजयश्री के लिए बड़े प्रसिद्ध हैं । इनकी मुद्राओं पर भी 'अर्जुनायनानां जयः' अंकित मिलता है जो प्रमाणित करता है कि ये क्षत्रपों को परास्त करने में मालवों के सहयोगी रहे हों, क्योंकि मालव मुद्राओं पर भी इसी भाँति 'मालवानां जयः' मिलता है । इस प्रकार राजस्थान के उत्तरी भाग के यौधेय भी एक बलशाली गणतन्त्रीय कबीला था जिनमें कुमारनामी इनका एक बड़ा शक्तिशाली नेता हो चुका है । यौधेय सम्भवतः उत्तरी राजस्थान की कुषाण शक्ति को नष्ट करने में सफल हुए थे जो एक रुद्रदामा के लेख से स्पष्ट है । कुषाणों की साम्राज्य-शक्ति से मुकाबला कर इन्होंने वीरता और अदम्यता की ख्याति प्राप्त की थी । ये इन्हीं का गणराज्य था जिसने अन्य गणतन्त्रीय व्यवस्थाओं से मिलकर शक-ऋषिक-तुरवार सत्ता को राजस्थान , पंजाब और दोआब से उखाड़ फेंका ।
यह तो निश्चय रूप से नहीं कहा जा सकता कि मालव या यौधेयों में किस प्रकार की शासन व्यवस्था थी परन्तु कुछ शिलालेखों तथा निकट सामयिक ग्रन्थों से यह अनुमान लगाया सकता है कि यौधेय व्यवस्था में अर्द्ध - राजसत्तात्मक शासन के ढंग को अपनाया गया था और उनके प्रमुख नेता को महाराज-सेनापति कहा जाता था । उसकी नियुक्ति यौधेयगण करता था । वैसे तो वैशाली के गणतन्त्र में भी सेनापति का एक पद था परन्तु सतत् युद्ध की स्थिति ने यौधेय सेनापति को महाराज की उपाधि से भी अलंकृत कर दिया था । मालवों के जनपदो में भी उपरीय व्यवस्थापक का एक स्थान था परन्तु उसके अधिकारों पर नियन्त्रण जनपद का होना स्वाभाविक था ।
इस युग में स्थापत्य कला ने अपनी एक विशेष प्रगति की थी । वैराट के विहार रेड के ईंटों के मकान , बीजक पहाड़ी का गोलाकार मन्दिर , नगरी का गरुड़ स्तम्भ , शिला प्राकार , स्तूप तथा वास्तविक और त्रिरत्ल के चिह्न उस समय के स्थापत्य के अवशेष के अच्छे उदाहरण हैं ।
इसी प्रकार कुषाणों के सम्पर्क ने राजस्थान के पत्थर और मृण्मय मूर्ति-कला को एक नवीन मोड दिया जिसके नमूने अजमेर के नाद की शिव प्रतिमा, साँभर का स्त्री का धड़ तथा अश्व । तथा अजामुख हयग्रीव या अग्नि की मूर्ति अपने आप कला के अद्वितीय नमूने हैं । बीकानेर । क्षेत्र में बड़ीपल और रंगमहल की मूर्तियों के केश, आभूषण और उत्तरीय के दिखाव गांधार शैली से प्रभावित दीख पड़ते हैं परन्तु वास्तव में उनमें एक स्थानीयपन है जो गले के आभूषण, कन्धे के आच्छादन तथा बालों की बनावट से स्पष्ट है । परन्तु गांधार शैली का इतने दूर तक तीसरी शताब्दी में प्रभाव बढ़ना असंगत प्रतीत होता है ।
लगभग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व से तीसरी शताब्दी ईसा काल में धर्म का राजस्थान में एक स्वरूप निर्धारित हो चुका था । नगरी, लालसोट, रेड, वैराट, पुष्कर के खण्डहर तथा स्तम्भ और स्तूप यह प्रमाणित करते हैं कि राजस्थान के केन्द्रीय भागों में बुद्ध धर्म का काफी प्रचार था । परन्तु यौधेय और मालवों के यहाँ आने से, ब्राह्मण धर्म को प्रोत्साहन मिलने लगा और बौद्ध धर्म के ह्रास के चिह्न दिखायी देने लगे । यज्ञ, दान, दक्षिणा का महत्त्व स्वीकार कर लिया गया । श्री सोम नान्दसा में षष्ठिरात्र यज्ञ के उत्सव के उपलक्ष में गौओं का दान लेकर और ब्राह्मणों को सन्तुष्ट कर अपने आपको कृतकृत्य समझने लगा । घोसुंडी शिलालेख से (200 ई . पू) विदित है कि शंकर्षण और वासुदेव की आराधना उस समय प्रचलित थीं । बीकानेर संग्रहालय की दानलीला की मूर्ति कृष्ण कथा की लोकप्रियता प्रमाणित करती है । समाज में शिव तथा महिषासुर मर्दिनी (नगर की) की आराधना प्रचलित थी । यौधेय युद्धप्रिय होने से कार्तिकेय और चामुण्डा के उपासक थे । इन सभी धार्मिक विश्वासों के होते हुए पंचरात्र विधि और शैव सिद्धान्त के दर्शक अभी बौद्धिक विचार में पूरा प्रवेश नहीं करने पाये थे । ये सभी शैशव स्थिति से गुजर रहे थे ।
•राजस्थान-गुप्तकाल से हूण आक्रमण तक
(300-600ई.)•
गुप्ताओं की शक्ति के उदय के साथ-साथ राजस्थान में स्थित मानव, यौधेय, आभीर आदि गणराज्य यथाविधि बने रहे जैसा कि समुद्रगुप्त के प्रयाग अभिलेख से प्रमाणित होता है । परन्तु इस लेख में मोखरियों का जिक्र नहीं है जो कोटा के आस-पास शक्तिशाली थे । सम्भवतः, 350 ई . तक ये नगण्य हो गये हों । ऐसा प्रतीत होता है कि गुप्त सम्राटों ने इन विभिन्न गणतन्त्रों को समाप्त नहीं किया परन्तु इन्हें अर्द्ध-आश्रित रूप में बनाये रखा । इस स्थिति में वे ईसा की पांचवीं शताब्दी तक गणतन्त्र के रूप में बने रहे । परन्तु जब हूणों ने पंजाब तथा अन्य उत्तरी भागों को अपने आतंक से नष्ट-भष्ट कर दिया तो उस तूफानी अभियान का धक्का सहन करने की क्षमता उनमें नहीं रही । हूण अपनी नृशंस प्रवृत्ति से वैराट, रंगमहल, बडापल, पीर सुल्तान-की-थड़ी आदि समृद्ध स्थानों को नष्ट-भ्रष्ट करने से न हिचके । राजस्थान के लिए छठवीं शताब्दी का समय शुभ नहीं था, इस अर्थ में कि यहाँ सदियों से पनपी हुई गणतन्त्रीय व्यवस्था सर्वदा के लिए समाप्त हो गयी ।
• शासन - व्यवस्था •
जहाँ तक राजनीतिक जीवन का प्रश्न है, हमने पहले ही पढ़ा है कि राजस्थान में केन्द्रीय गुप्त व्यवस्था ने आन्तरिक शासन में कोई हस्तक्षेप नीति को नहीं अपनाया । इसका फल यह हुआ कि गणतन्त्रीय व्यवस्थाएँ अपने-अपने क्षेत्र में स्वतन्त्र बनी रहीं । एक प्रकार का नाममात्र का आधिपत्य स्वीकार करने के अतिरिक्त उनका केन्द्रीय राज्य से कोई विशेष सम्बन्ध नहा । था । परन्तु समुद्रगुप्त की मृत्यु के पीछे धीरे - धीरे गणतन्त्रीय राज्यों में निर्बलता आ जाने से । उनमें भी छोटी-छोटी इकाइयाँ बन गयीं जिनका वर्णन यथास्थान किया जायेगा ।
• सामाजिक और आर्थिक स्थिति •
इस काल में राजस्थान का समाज वणों में विभाजित था, परन्तु विदेशी प्रभाव तथा विदेशी जातियों के आ जाने से सामाजिक विघटन और विकृति के तत्त्व दिखायी देने लगे थे । ज्यों-ज्यों शकों की शक्ति कम होती गयी उनको यहाँ की स्थायी सामाजिक व्यवस्था से मिल-जुलकर रहने और एक-दूसरे के प्रति सहयोग तथा सहवास की भावना उत्पन्न करने की क्षमता आ गयी । हूणों के आक्रमण ने पहले के विदेशी समुदाय को स्थानीय समुदाय के साथ मिला दिया । आगे चलकर हूण भी ऐसे समाज के साथ मिल गये । इस युग की आर्थिक स्थिति की जानकारी हमें भरतपुर, बुन्दीवाली डूंगरी (जयपुर), अजमेर तथा मेवाड़ से मिलने वाले चन्द्रगुप्त प्रथम, समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय और कुमारगुप्त प्रथम की सुवर्ण मुद्राओं से होती है ।
• धार्मिक प्रगति •
राजस्थान के गप्त शासनकाल में ब्राह्मण धर्म की उन्नति हुई । सांभर के नालियामाकी रजत मद्राओं से जो कुमारगुप्त प्रथम की हैं और जिन पर मयूर की आकृति बनी हुई है होता है कि उस समय स्वामी कार्तिक की पूजा लोकप्रिय थी । कोटा के मुकन्दरा और कृष्ण विलास के मन्दिर तथा भीनमाल, मंडोर के स्तम्भ, पाली और कामा की विष्णु, कृष्ण, बलराम आदि की मूर्तियाँ इन क्षेत्रों में वैष्णव धर्म के प्रसार की द्योतक हैं । ये मूर्तियाँ कुछ तो जोधपुर तथा कुछ भरतपुर संग्रहालय में सुरक्षित हैं । इसी तरह 423 ई. का गंगाधर शिलालेख और 425 ई . का नगरी का शिलालेख इन स्थानों में विष्णु के मन्दिरों के निर्माण का उल्लेख करते हैं ।
जब वैष्णव धर्म समाज का धर्म बना हुआ था तो उत्तरी-पूर्वी तथा दक्षिण-पश्चिमी राजस्थान में इस धर्म के साथ-साथ शैव धर्म की भी मान्यता थी । कोटा का चारचोमा का मन्दिर और रंगमहल व वडोपल से प्राप्त शिव-पार्वती की मूर्तियाँ तथा साँभर, कल्याणपुर और कामा के शिव-पार्वती की मूर्तियाँ शैव धर्म की लोकप्रियता बताती हैं ।
इन धर्मों के साथ-साथ उदयपुर जिले का भ्रमरमाता का मन्दिर, नालियासर की दुर्गादेवी की खण्डित पट्टिका तथा दुर्गा और गंगा का रेड से प्राप्त मिट्टी के बर्तनों पर अंकन यहाँ मातृदेवी की उपासना का प्रचलन बताते हैं ।
इन देवता और देवियों की उपासना के साथ - साथ राजस्थान में ब्राह्मण धर्म और अनुष्ठान को प्रोत्साहन मिला हुआ था । एक खण्डित शिलालेख में जो लगभग चौथी शताब्दी का है,
वाजपेय यज्ञ का उल्लेख है तो 424 के गंगाधर यूप लेख में नरवर्मन द्वारा देवताओं को प्रसन्न करने की अभिलाषा से यज्ञों के करने का वर्णन है । इसी गंगाधर के लेख में तान्त्रिक विधि से मातृदेवी की आराधना का उल्लेखतन्त्र और मन्त्र में विश्वास रखने की ओर संकेत करता है । मण्डोर सिरोही तथा पिण्डवाडा से मिलने वाली पत्थर काँसे और सर्वधात् की मुर्तियां पश्चिमी राजस्थान में जैन धर्म के प्रचार और प्रसार पर प्रकाश डालती हैं।
• मूर्तिकला तथा वास्तुकला •
गुप्त कला की अभिव्यक्ति में राजस्थान बड़ा समृद्ध है । इस काल की प्रतिमाएँ जो अमझेरा (डूॅगरपुर), कल्याणपुर और जगत (उदयपुर), आम्बानेरी (जयपुर), मण्डोर ओसियाँ (जोधपुर), बाडोली, कोटा, बसेरी (धौलपुर), नीलकंठ और सेंचली (अलवर) आदि स्थानों से प्राप्त हुई है; अलंकृत कला, सते हुए त्रिचीवरों तथा केश के नवीन प्रसाधनों से गुप्त शैली के अधिक समीप हैं । रंगमहल, मुण्डा, पीरसल्लानरी-थडी से, जो बीकानेर क्षेत्र में हैं, जो सामग्री उपलब्ध हुई है यह अपनी सजीवता, सादगी, गति तथा तक्षण कला में विशिष्टता प्रकट करती हैं । साँभर की उत्खनन सामग्री में मिटटी के बर्तनों के टुकड़ों पर बनी हुई विविध आकृतियाँ, फूलों की पंखड़ियाँ, पत्तियों की बनावट और जालीदार रेखाकृति परम्परा के विचार से ऐसी निर्दोष है कि उन्हें देखते ही बनता है ।
इस युग में वास्तू-शिल्प को बहुत प्रोत्साहन मिला जो मूकन्दरा तथा नगरी के मन्दिरों से प्रमाणित है । इन मन्दिरों के शिखर, प्रासाद तथा चौकोर और गोल खम्भौं की प्रणाली उत्तर गुप्तकाल में बनने वाले ओसियाँ आम्बानेरी और बाडोली के मन्दिरों की निर्माण कला में नयी दिशा निर्धारित करने के आधार बने । इतना ही नहीं, इन्हीं मन्दिरों की मूलभूत वास्तु-कुशलता को लेकर भारतीय नागर और द्रवित शैली का विकास हुआ था ।
• शिक्षा का प्रसार •
इस काल में निःसन्देह अनेक प्रतिभाशाली मेधावी हए जिन्होंने स्तम्भ-लेखों के द्वारा काव्य-प्रतिभा तथा सुसंस्कृत होने का प्रमाण दिया है । इससे यह भी प्रकट होता है कि इन मेधावियों ने अपनी साहित्यिक प्रखरता का जनता पर गहरा प्रभाव डाला था । ठीक इस युग की समाप्ति के बाद सातवीं शताब्दी में भीनमाल में माध का होना और चित्रकूट (चित्तौड़) में हरिभद्र सूरि के होने से सिद्ध है कि राजस्थानी साहित्यिक तथा काव्य सम्बन्धी प्रगति गुप्त काल में विकसित और समृद्ध अवस्था में थी, जो निकट भविष्य में प्रतिभा सम्पन्न विद्वानों को जन्म दे सकी । इस काल की बौद्धिक अभिसृष्टि से विदित होता है कि उस युग में प्रचलिता शिक्षा प्रणाली भी अच्छी रही होगी । ब्रह्म सिद्धान्तों का लेखक ब्रह्मगुप्त भीनमाल में रहकर गणित सम्बन्धी ज्ञान को प्रसारित करता रहा । सम्भवतः 72 आर्य छन्दों में इसी विद्वान 'ध्यानग्रह' का सृजन किया था ।
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